राग टोडी
1
हरि नांव हीरा हरि नांव हीरा । हरि नांव लेत मिटै सब पीरा ॥टेक॥
हरि नांव जाती हरि नांव पांती । हरि नांव सकल जीवन मैं क्रांती ॥1॥
हरि नांव सकल सुषन की रासी । हरि नांव काटै जम की पासी ॥2॥
हरि नांव सकल भुवन ततसारा । हरि नांव नामदेव उतरे पारा ॥3॥
2
रांम नांम षेती रांम नांम बारी । हमारै धन बाबा बनवारी ॥टेक॥
या धन की देषहु अधिकाई । तसकर हरै न लागै काई ॥1॥
दहदिसि राम रह्या भरपूरि । संतनि नीयरै साकत दूरि ॥2॥
नामदेव कहै मेरे क्रिसन सोई । कूंत मसाहति करै न कोई ॥3॥
3
रांमसो धन ताको कहा अब थोरौ । अठ सिधि नव निधि करत निहोरौ ॥टेक॥
हरिन कसिब बधकरि अधपति देई । इंद्रकौ विभौ प्रहलाद न लेई ॥1॥
देव दानवं जाहि संपदा करि मानै । गोविंद सेवग ताहि आपदा करि जानै ॥2॥
अर्थ धरम काम की कहा मोषि मांगै । दास नांमदेव प्रेम भगति अंतरि जो जागै ॥3॥
4
मंझा प्रांन तूं बीठला । पैडी अटकी हो बाबुला ॥टेक॥
कलि षोटी कुसमल कलिकाल । बंधन मोचउ श्री गोपाल ॥1॥
काटि नरांइण भौचे बंध । सम्रथ दिढकरि ओडौ कंध ॥2॥
नांमदेव नरांइण कीन्ही सार । चले परोहन उतरे पार ॥3॥
5
रांम रमे रमि रांम संभारै । मैं बलि ताकी छिन न बिचारै ॥टेक॥
रांम रमे रमि दीजै तारी । वैकुंठनाथ मिलै बनवारी ॥1॥
रांम रमे रमि दीजै हेरी । लाज न कीजै पसुवां केरी ॥2॥
सरीर सभागा सो मोहि भावै । पारब्रह्म का जे गुन गावै ॥3॥
सरीर धरे की इहै बडाई । नांमदेव राम न बीसरि जाई ॥4॥
6
रांम बोले राम बोले राम बिना को बोले रे भाई ॥टेक॥
ऐकल मींटी कुंजर चीटी भाजन रे बहु नाना ।
थावर जंगम कीट पतंगा, सब घटि रांम समाना ॥1॥
ऐकल चिता राहिले निता छूटे सब आसा ।
प्रणवत नांमा भये निहकामा तुम ठाकुर मैं दासा ॥2॥
7
रांम सो नामा नाम सो रांमा । तुम साहिब मैं सेवग स्वामां ॥टेक॥
हरि सरवर जन तरंग कहावै । सेवग हरि तजि कहुं कत जावे ॥1॥
हरि तरवर जन पंषी छाया । सेवग हरिभजि आप गवाया ॥2॥
नामा कहै मैं नरहरि पाया । राम रमे रमि राम समाया ॥3॥
8
जन नांमदेव पायो नांव हरी ।
जम आय कहा करिहै बौरै । अब मोरी छूटि परी ॥टेक॥
भाव भगति नाना बिधि कीन्ही । फल का कौन करी ।
केवल ब्रह्म निकटि ल्यौ लागी । मुक्ति कहा बपुरी ॥1॥
नांव लेत सनकादिक तारे । पार न पायो तास हरी ।
नांमदेव कहै सुनौ रे संतौ । अब मोहिं समझि परी ॥2॥
9
रांमनाम जपिबौ श्रवननि सुनिबौ ।
सलिल मोह मैं बहि नहीं जाईबौ ॥टेक॥
अकथ कथ्यौ न जाइ । कागद लिख्यौ न माइ ।
सकल भुवनपति मिल्यौ है सहज भाइ ॥1॥
रांम माता रांम पिता रांम सबै जीव दाता ।
भणत नामईयौ छीपौ । कहै रे पुकारि गीता ॥2॥
10
धृग ते बकता धृग ते सुरता । प्राननाथ कौ नांव न लेता ॥टेक॥
नाद वेद सब गालि पुरांनां । रामनाम को मरम न जाना ॥1॥
पंडित होइ सो बेद बषानै । मूरिष नांमदेव राम ही जानै ॥2॥
11
अपना पयांना राम अपना पयांनां । नामदेव मूरिष लोग सयाना ॥टेक॥
जब हम हिरदै प्रीति बिचारी । रजबल छांडि भए भिषारी ॥1॥
जब हरि कृपा करी हम जांनां । तब या चेरा अब भए रांनां ॥2॥
नामदेव कहै मैं नरहर गाया । पद षोजत परमारथ पाया ॥3॥
12
तूं अगाध बैकुंठनाथा । तेरे चरनौं मेरा माथा ॥टेक॥
सरवे भूत नानां पेषूं । जत्र जाऊं तत्र तूं ही देषूं ॥1॥
जलथल महीथल काष्ट पषानां । आगम निगम सब बेद पुरानां ॥2॥
मैं मनिषा जनम निरबंध ज्वाला । नामां का ठाकुर दीन दयाला ॥3॥
13
सबै चतुरता बरतै अपनी ।
ऐसा न कोइ निरपष ह्रै षेलै ताथै मिटै अंतर की तपनीं ॥टेक॥
अंतरि कुटिल रहत षेचर मति, ऊपरि मंजन करत दिनषपनी ॥1॥
ऐसा न कोइ सरबंग पिछानै प्रभु बिन और रैनि दिन सुपनी ॥2॥
सोई साध सोई मुनि ग्यानि, जाकी लागि रही ल्यौ रसनी ॥3॥
भणत नामदेव तिनि थिति पाई, जाके रांम नांम निज रटनी ॥4॥
14
तेरी तेरी गति तूं ही जानै । अल्प जीव गति कहा बषानै ॥टेक॥
जैसा तूं कहिये तैसा तूं नाहीं । जैसा तूं है तैसा आछि गुसाईं ॥1॥
लूण नीर थै ना ह्रै न्यारा । ठाकुर साहिब प्रांण हमारा ॥2॥
साध की संगति संत सूं भेंटा । प्रणवंत नांमा रांम सहेटा ॥3॥
15
लोग एक अनंत बानी । मंझा जीवन सारंगपानी ॥टेक॥
जिहि जिहि रंगै लोकराता । ता रंगि जन न राचिला ॥1॥
जिहि जिहि मारग संसार जाइला, सो पंथ दूरै वंचिला ॥2॥
निरबानै पद कोइ चीन्है, झूठै भरम भलाइला ॥3॥
प्रणंवत नामा परम तत रे, सतगुरु निकटि बताइला ॥4॥
16
लोक कहैं लोकाइ रे नामा ।
षट दरसन के निकटि न जाइबौ, भगति जाइगी जाइ रे नाम ॥टेक॥
षट क्रम सहित बिप्र आचारी, तिन सूं नाहित कांमा ।
जौ हरिदास सबनि थैं नीचे, तौऊ कहेंगे केवल रामा ॥1॥
अधम असोच भ्रष्ट बिभचारी पंडरीनाथ कौ लेहि जु नांमा ।
वै सब बंध बरग मेरी जीवनि, तिनकै संगि कहयौ मैं रामा ॥2॥
गो सति लछि बिप्र कूं दीजै, मन बंछित सब पुरवै कामा ।
दास पटंतर तउ न तूलै, भगति हेत जस गावै नामा ॥3॥
17
का करौं जाती का करौं पांती । राजाराम सेऊं दिन राती ॥टेक॥
मन मेरी गज जिभ्या मेरी काती । रामरमे काटौं जम की फासी ॥1॥
अनंत नाम का सींऊं बागा । जा सीजत जम का डर भागा ॥2॥
सीबना सीऊं हौं सीऊं ईब सीऊं । राम बना हूं कैसे जीऊं ॥3॥
सुरति की सूई प्रेमका धागा । नांमा का मन हरि सूं लागा ॥4॥
18
ऐसे मन राम नामैं बेधिला । जैसे कनक तुला चित राषिला ॥टेक॥
आनिलैं कागद साजिलै गूडी, आकास मंडल छोडिला ।
पंच जना सूं बात बतउवा, चित सूं डोरी राषिला ॥1॥
आनिलै कुंभ भराइलै उदिक, राजकुंवारि पुलंदरियै ।
हसत विनोद देत करताली, चित सूं गागरि राषिला ॥2॥
मंदिर एक द्वार दस जाकै, गउ चरावन चालिला ।
पांच कोस थै चरि फिरि आवै, चित सूं बाछा राषिला ॥3॥
भणत नामदेव सुनौ तिलोचन, बालक पालनि पौढिला ।
अपनै मंदिर काज करंती, चित सूं बालक राषिला ॥4॥
19
का नाचीला का गाईला । का घसि घसि चंदन लाईला ॥टेक॥
आपा पर नहिं चीन्हीला । तौ चित्त चितारै डहकीला ॥1॥
कृत्म आगै नाचै लोई । स्यंभू देव न चीन्है कोई ॥2॥
स्यंभ्यूदेव की सेवा जानै । तौ दिव दिष्टी ह्रै सकल पिछानै ॥3॥
नामदेव भणै मेरे यही पूजा । आतमराम अवर नहीं दूजा ॥4॥
20
रामची भगति दुहेली रे बापा । सकल निरन्तरि चीन्हिले आपा ॥टेक॥
बाहरि उजला भीतरि मैला । पांणी पिंड पषालिन गहला ॥1॥
पुतली देव की पाती देवा । इहि बिधि नाम न जानै सेवा ॥2॥
पाषंड भगति राम नहीं रीझै । बाहरि आंधा लोक पतीजै ॥3॥
नामदेव कहै मेरा नेत्र पलट्या । राम चरना चित चिउट्या ॥4॥
21
जौ लग राम नामै हित न भयौ ।
तौ लग मेरी मेरी करता जनम गयौ ॥टेक॥
लागी पंक पंक लै धोवै । निर्मल न होवै जनम बिगोवै ॥1॥
भीतरि मैला बाहरि चोषा । पाणीं पिंड पषालै धोषा ॥2॥
नामदेव कहै सुरही परहरिये । भेड पूंछ कैसे भवजल तरिये ॥3॥
22
काहे कू कीजै ध्यांन जपना । जो मन नाहीं सुध अपना ॥टेक॥
सांप कांचली छाडै विष नहीं छाडै । उदिक मैं बग ध्यान माडै ॥1॥
स्यंघके भोजन कहा लुकाना । ये सब झूठे देव पुजाना ॥2॥
नामदेव का स्वामीं मांनिले झगरा । रांम रसांइन पीवरे भगरा ॥3॥
23
भगत भला बाबा काडला । बिन परतीतैं पूजै सिला ॥टेक॥
न्हावै धोवै करै सनान । हिरदै आंषिन माथै कान ॥1॥
गलि पहिरै तुलसी की माला । अंतरगति कोईला सा काला ॥2॥
नामदेव कहै ये पेटा बलू । भीतरि लाष उपरि हिंगलू ॥3॥
24
सांच कहैं तौ जीव जव मारै । ऐक अनेक आगैं नित हारै ॥टेक॥
सांचे आषरि गोठिं बिनासै । भाजै हाड अभावै हासै ॥1॥
मन मैले की सुध नहीं जाणी । साबण सिला सराहै पाणी ॥2॥
ऊजल बांना नीच सगाई । पाषंड भेष कीऐ पति जाई ॥3॥
अपस अग्यांनी उजल हूवा । संसै गांठि पडी गलि मूवा ॥4॥
नामदेव कहै ये संष सरापी । पुंडरी नाथ न सुमिरै पापी ॥5॥
25
साईं मेरौ रीझै सांचि । कूडै कपट न जाई राचि ॥टेक॥
भावै गावौ भावै नाचौ । जब लगि नाहीं हिरदै सांचौ ॥1॥
अनेक सिंगार करै बहु कामिनि । पीय के मनि नहीं भावै भामिनि ॥2॥
पतिव्रता पति ही कौ जानै । नामदेव कहै हरि ताकी मानै ॥3॥
26
रतन पारषूं नीरा रे । मुलमा मंझै हीरा रे ॥टेक॥
संष पारषूं निरषी जोई । बैरागर क्यूं षोटा होई ॥1॥
कालकुष्ट विष बांध्यौ गांठि । कहा भयौ नहीं षायौ बांटि ॥2॥
षायौ विष कीन्हौ विस्तार । नामदेव भणै हरि गरुड उबार ॥3॥
27
कौन कै कलंक रह्यौ राम नाम लेत ही ।
पतित पावन भयौ राम कहत ही ॥टेक॥
राम संगि नामदेव जिनहु प्रतीति पाई ।
एकादशी व्रत करै काहे कौ तीरथ जाई ॥1॥
भणत नांमदेव सुमिरत सुकृत पाई ।
राम कहत जन को न मुक्ति जाई ॥2॥
28
राम नाम नरहरि श्री बनवारी । सेविये निरंतर चरन मुरारी ॥टेक॥
गुरु को सबद बैकुंठ निसरनी । ह्रदै प्राग प्रेंम रस वानी ॥1॥
जा कारन त्रिभुवन फिरि आये । सो निधान घटि भीतरि पाये ॥2॥
नामदेव कहै कहूं आइये न जाइये । अपने राम घर बैठे गाइये ॥3॥
29
रांम जुहारि न और जुहारौ । जीवनि जाइ जनम कत हारौं ॥टेक॥
आनदेव सौं दीन न भाषौं । राम रसाइन रसना चाषौं ॥1॥
थावर जंगम कीट पतंगा । सत्य राम सब हिन के संगा ॥2॥
भणत नांमदेव जीवनि रामा । आंनदेव फोकट बेकामा ॥3॥
30
जा दिन भगतां आईला । चारया मुक्ती पाईला ॥टेक॥
दरसन धोषा भागीला । कोई आइ सुकृत जागीला ॥1॥
सनमुष दरसन देषीला । तब जन्म सुफल करि लेषीला ॥2॥
साध संगति मिलि षेलीला । पांचू प्रबल पेलीला ॥3॥
बैसनो हिरदै समाईला । जन नामदेव आनंद गाईला ॥4॥
31
संत सूं लेना संत सूं देना । संत संगति मिलि दुस्तर तिरना ॥टेक॥
संत की छाया संत की माया । संत संगति मिलि गोविंद पाया ॥1॥
असंत संगति नामा कबहूं न जाई । संत संगति मैं रह्यौ समाई ॥2॥
32
पर हरि धंधाकार सबैला । तेरी चिंता राम करैला ॥टेक॥
नाराइन माता नाराइन पिता । बैस्नो जन परिवार सहेता ॥1॥
केसौ कै बहु पूत भयेला । तामैं नांमदेव एक तू दैला ॥2॥
33
माई तूं मेरै बाप तूं । कुटूंबी मेरा बीठला ॥टेक॥
हरि हैं हमची नाव री । हरि उतारै पैली तिरि ॥1॥
साध संगति मिलि षेई चार । केसौ नामदेव चा दातार ॥2॥
34
माइ गोव्यंदा बाप गोव्यंदा । जाति पांति गुरुदेव गोव्यंदा ॥टेक॥
गोव्यंद ग्यान गोव्यंद ध्यान । सदा आनंदी राजाराम ॥1॥
गोव्यंद गावै गोव्यंद नाचै । गोव्यंद भेष सदा नृति काछै ॥2॥
गोव्यंद पाती गोव्यंद पूजा । नामा भणै मेरे देव न दुजा ॥3॥
35
हिरदै माला हिरदै गोपाला । हिरदै सिष्टि कौ दीन दयाला ॥टेक॥
हिरदै मांही रंग हिरदै छीपा । हिरदै रैणी पांणी नीका ॥1॥
हिरदै दीपक घटि उजियाला । षूटि किवार टूटि गयौ ताला ॥2॥
हिरदै रंग रोम नहीं जाति । रंगि रे नामा हरि की भांति ॥3॥
36
अब न बिसारुं राम संभारुं । जौ रे बिसारुं तौ सब हारुं ॥टेक॥
तन मन हरि परि छिन छिन वारुं । घडी महूरति पल नहीं टारुं ॥1॥
सुमिरन स्वासा भरि भरि पीऊं । रंक राम गुड खाइ रे जीऊं ॥2॥
आरौ मांडि रम रटि लैहूं । जौ रे बिसारौं तौ रोइ दैहूं ॥3॥
नामदेव कहै ओर आस न करिहूं । राम नाम धन लाग्यौ मरि हूं ॥4॥
37
राम राइ उलगुं और न जाचूं । सरीर अनंत जाउ भलै जाउ ॥टेक॥
जोग जुगुती कछु मुकति न भाषूं । हरि नांव हरि नांव हिरदै राषूं ॥1॥
राम नांम नांमदेव अनहद आछै । भगति प्रेम रस गावै नाचै ॥2॥
38
बीहौं बीहौं तेरी सबल माया । आगै इनि अनेक भरमाया ॥टेक॥
माया अंतर ब्रह्म न दीसै । ब्रह्म के अंतर माया नहीं दीसै ॥1॥
भणत नामदेव आप बिधांनां । दहू घोडांन चढाइ हौ कान्हा ॥2॥
39
बाजी रची बाप बाजी रची । मैं बलि ताकी जिन सूं बची ॥टेक॥
बाजी जामन बाजी मरना । बाजी लागि रह्यो रे मना ॥1॥
बाजी मन मैं सोचि बिचारी । आपै सुरति आपै सुत्रधारी ॥2॥
नामदेव कहै तेरी सरनां । मेटि हमारै जांमन मरना ॥3॥
40
तूं न बिसारि तूं न बिसारि । मैं तूं विसार्यौ मोर अभाग ॥टेक॥
अषिल भवनपति गरडा गामी । अंति काल हरि अंतर जामी ॥1॥
जामन मरण बिसरजन पूजा । तुम सा देव और नहीं दूजा ॥2॥
तूंज बिसभर मैं जन नामा । संत जनन के पुरवन कामा ॥3॥
41
बाप मंझा समझि न परई । सांचो ढारि अवर कछु भरई ॥टेक॥
पानी का चित्र पवन का थंभा । कौन उपाइ रच्यौ आरंभा ॥1॥
इहां का उपज्यां इंहां बिलाना । बोलनहारा ए कहां समाना ॥2॥
कहै नराइन सुनि जन नांमा । जहां सुरति तहां पूरन कामा ॥3॥
जीवत राम न भयो प्रकासा । भनत नांमदेव मूवा कैसी आसा ॥4॥
42
कैसे तिरत बहु कुटिल भरयौ । कलि के चिन्ह देषि नांहिन डरयौ ॥टेक॥
कैसी सेवा कैसा ध्यांन । जैसे उजल बग उनमान ॥1॥
भाव भुवंग भए पैहारी । सुरति सिंचाना मति मंजारी ॥2॥
नामदेव भणै बहु इहि गुणि बांधा । डाइन डिंभ सकल जग षाधा ॥3॥
43
काल भै बापा सहया न जाइ । महा भै भीत जगत कूं षाइ ॥टेक॥
अनेक मुनेस्वर झूझै जाइ । सुर नर थाके करत उपाइ ॥1॥
कंपै पीर पैकंबर देव । रिसि कंपै चौंरासी जेव ॥2॥
चंद्र सूर धर पवन अकास । पाणी कंपै अगिन गरास ॥3॥
कंपै लोक लोकंतर षंड । ते भी कंपै अस्थिर प्यंड ॥4॥
अविचल अभै नराइन देव । नामदेव प्रणवै अलष अभेव ॥5॥
44
सहजै सब गुन जइला । भगवत भगतां ए स्थिर रहिला ॥टेक॥
मुक्ति भऐला जाप जपेला । सेवक स्वामी संग रहेला ॥1॥
अमृत सुधानिधि अंत न जाइला । पीवत प्रान कदे न अधाइला ॥2॥
रामनांम मिलि संग रहैला । जबलग रस तब लग पीबैला ॥3॥
45
कैसे न मिले राम रुठा मोठा । चित न चलै कुचित मोरा षोटा ॥टेक॥
बाइर मांडी बार लागीला । ऐसे जो मन लोगे बीठला ॥1॥
नामौ कहै मन मारिग लागिला । ऐसे निसागत सूर उगिला ॥2॥
46
कहा करुं जग देषत अंधा । तजि आनंद बिचारै धंधा ॥टेक॥
पाहन आगै देव कटीला । बाको प्रांण नहीं बाकी पूज रचीला ॥1॥
निरजीव आगै सरजीव मारैं । देषत जनम आपनौं हारैं ॥2॥
आंगणि देव पिछौकडि पूजा । पाहन पूजि भए नर दूजा ॥3॥
नांमदेव कहै सुनौ रे धगडा । आतमदेव न पूजौ दगडा ॥4॥
47
देवा तेरी भगति न मो पै होइ जी ।
जिहि सेवा साहिब भल मानै । करिहूं न जानै कोइ जी ॥टेक॥
सुमृत कथा होइ नहीं मोपै । कथूं त होइ अभिमान जी ।
जोई जोई कथूं उलटि मोहिं बांधै । त्राहि त्राहि भगवान जी ॥1॥
जामैं सकल जीव की उतपति । सकल जीव मैं आप जी ।
माया मोह करि जगत भुलाया । घटि घटि व्यापक बाप जी ॥2॥
सो बैकुंठ कहौं धौं कैसो । प्यंड परे जहँ जाइये ।
यहु परतीति मोहिं नहिं आवै । जीवत मुकति न पाइये ॥3॥
मैं जन जीव ब्रह्म तुम माधौ । विन देषे दुष पाईये ।
राषि समीप कहै जन नांमा । संगि मिला गुन गाईये ॥4॥
48
भगति आपि मोरे बाबुला । तेरी मुक्ति न मांगू हरि बीठूला ॥टेक॥
भगति न आपै तौ तन आडौ । कोटि करै तौ भगति न छांडौ ॥1॥
अनेक जनम भरमतौ फिरयो । तेरो नांव ले ले उधरयौ ॥2॥
नांमदेव कहै तू जीवन मोरा । तू साइर मैं मंछा तोरा ॥3॥
49
संसार समंदे तारि गोबिंदे । हुं तिरही न जानूं बाप जी ॥टेक॥
लोभ लहरि अति नीझर बरिषै । काया बूडे केसवा ॥1॥
अनिल बेडा षेइ न जानूं । पार दे पार दे बीठला ॥2॥
नांमा कहै मैं सेवग तेरा । बांह दे बांह दे बाबुला ॥3॥
50
तुझ बिन क्यूं जीऊं रे तुझ बिन क्यूं जीऊं ।
तू मंझा प्रांन अधार तुझ बिन क्यूं जीऊं ॥टेक॥
सार तुम्हारा नांव है झूठा सब संसार ।
मनसा बाचा कर्मना कलि केवल नांव अधार ॥1॥
दुनियां मैं दोजग घनां दारन दुष अधिक अपार ।
चरन कंवल की मौज मैं मोहि राषौ सिरजन हार ॥2॥
मो तो बिचि पडदा किसा लोभ बडाई काम ।
कोई एक हरिजन ऊबरे जिनि सुमिरया चिहचल रांम ॥3॥
लोग वेद कै संगि बहूयौ सलिल मोह की धार ।
जन नांमा स्वामी बीठला, मोहि षेइ उतारौ पार ॥4॥
51
बंदे की बंदि छोडि बनवारी ।
असरन सरनि राम कहे बिन आइ परे जम धारी ॥टेक॥
केई बांधे जोग जप करि केई तीरथं दांना ।
केई बांधे नेमा बरतां तेरे हाथि नाथ भगवाना ॥1॥
रामदेव तेरी दासी माया नाटी कपट कीन्हां ।
थावर जंगम जीति लिया है आपा पर नहीं चीन्हां ॥2॥
नांमदेव भणै मैं तुम थैं छूंटू जो तुम छोडावौ गोपालजी ।
तुम बिन मेरे गाहक नांही दीनानाथ दयाल जी ॥3॥
52
देवा मेरी हीन जाती है काहू पै सहीं न जाती हो ॥टेक॥
मैं नहीं मैं नहीं मैं नहीं मांधौ तूं है मैं नहीं हौं ।
तू एक अनेक है बिस्तरयो मेरी चरम न साई हो ॥1॥
जैसे नदीया समद समानी धरनी बहती हो ।
तुम्हारी कृपा थें नीच ऊंच भए तूं काल की कांती हो ॥2॥
नामौ कहै मेरी देवी न देवा संग न साथी मीतुला ।
तुम्हारी सरनि मैं भाजि दुरयौं हैं बंदि छोडि बाबा बीठुला ॥3॥
53
हरि नांव राजै हरि नांव गाजै । हरि कौ नांव लेतां कांइ नर लाजै ॥टेक॥
हरि मेरा मातु पिता गुरुदेवा । अपणें राम की करिहूं सेवा ॥1॥
हरि नांव मैं निज कंवला दासी । हरि नांवै संकर अविनासी ॥2॥
हरि नांव मैं ध्रू निहचल करीया । हरि नांव मैं प्रहलाद उधरीया ॥3॥
हरि मेरे जीवन मरण के साथी । हरि जल मगन उधारयौ हाथी ॥4॥
हरि मेरे संगि सुष दाता । हरि नामैं नांमदेव रंगि राता ॥5॥
54
इतना कहत तोहि कहा लागत । राम नांव ले सोवत जागत ॥टेक॥
ध्रू प्रहलाद इहि गुन तारे । राम नाम अखिर हिरदै विचारे ॥1॥
राम नांम सनकादिक राता । राम नांम नृभै पद दाता ॥2॥
भणत नामदेव भाव ऐसा । जैसी मनसा लाभ तैसा ॥3॥
55
बोलिधौं निर्वाणैं पद राम नांम । ठाली जिभ्या कौणै है काम ॥टेक॥
सेवा पूजा सुमिरन ध्यांन । झूठा कीजै बिन भगवान ॥1॥
तीरथ बरत जगत की आस । फोकट कीजै बिन बिसवास ॥2॥
ऐकादसी जगत की करनी । पाया महल तब तजी निसरनी ॥3॥
भणत नांमदेव तुम्हारे सरनां । मुझा मनवा तुझा चरनां ॥4॥
56
ऐसे रामहिं जानौ रे भाई । जैसे भृंगी कीट रहै ल्यौ लाई ॥टेक॥
सरब रुप सरबेसर स्वामी । त्रिगुण रहत देव अंतर जामी ॥1॥
थावर जंगम कीट पतंगा । सति राम सबहिन के संगा ॥2॥
नामा कहै मेरे बंध न भाई । रामनांम मैं नौ निधि पाई ॥3॥
57
ऐसे राम ऐसे हेरा । राम छांडि चित अनत न फेरौ ॥टेक॥
ज्यूं विषई हेरै परनारी । कौडा डारत फिरै जुवारी ॥1॥
ज्यूं पासा डारै पसवारा । सोना घडता हरै सोनारा ॥2॥
जत्र जाउं तत्र तू ही रामा । चित चिंउंट्या प्रंणवै नामा ॥3॥
58
पांणीयां बिन मीन तलफै । ऐसे रांम नांम बिन बापुरौ नामा ॥टेक॥
तन लागिलै ताला बेली । बछा बिन गाइ अकेली ॥1॥
जैसे गाइ का बछा छूटिला । थन लागिलै मांषन घूंटिला ॥2॥
मांषन मेल्हिलै ताती धांमा । ऐसे रांम नांम बिन बापुरो नांमा ॥3॥
जैसे बिषई चित पर नारी । ऐसे नांमदेव प्रीति मुरारी ॥4॥
58
अनबोलता चरन न छांडू । मोहि तुम्हारी आंन बाबा बीठला ॥टेक॥
टगमग टगमग क्यों चोघता । एक बोल बोलौ बोलता ॥1॥
कहिधौं कूतल कहिधौं बली । प्रणवत नांमदेव पुरवौ रली ॥2॥
59
जत्र जाउं तत्र बीठल भैला । बीठलियौ राजाराम देवा ॥टेक॥
आनिलै कुंभ भराइले उदिक, बालगोबिन्दहिं न्हाण रचौं ।
पहलै नीर जु मछ बिटाल्यौ, झूठण भैला कांइ करुं ॥1॥
आंणिलै केसरि सूकडि समसरि, बाल गोबिंदहिं षौलि रचूं ।
पहली बास भुवंगम लीन्ही, जूंठणि भैला कांइ करुं ॥2॥
आंणिलै पुहुप गूंथिलै माला, बाल गोबिंदहिं हार रचूं ।
पहली बास जुं भंवरै लीनी, जूठणि भैल कांइ करु ॥3॥
आंणिलै धृत जोइलै बाती, बाल गोबिंदहि जोति रचूं ।
पहली जोति जु नैनानि देषी, जूठणि भैला कांइ करुं ॥4॥
आंणिलै अगरषेइलै धूपा, बाल गोबिन्दहिं धूप रचूं ।
पहली बास नासिका आई, जूठणि भैला कांइ करुं ॥5॥
आंणिलै तंदुल रांधिलै षीरो, बाल गोबिंदहि भोग रचूं ।
पहली दूध जु बछा बिटालौ, जूठणि भैला कांइ करुं ॥6॥
आऊं तौ बीठल जाऊं तौ बीठल, बीठल व्यापक माया ।
नांमा का चित हरि सूं लागा, ताथैं परम पद पाया ॥7॥
60
कांइ रे मन विषिया बन जाहिं । देषत ही ठग मूली षांहि ॥टेक॥
मधुमाषी संचियो अपार । मधु लीन्हौ मुष दीन्हीं छार ॥1॥
गऊ बछ कौ संचै षीर । गलै बांधि दुहि लेइ अहीर ॥2॥
जैसे मीन पानी मैं रहै । काल जाल की सुधि न लहै ॥3॥
जिभ्या स्वारथ निगल्यौ लोह । कनक कामनी बांध्यौ मोह ॥4॥
माया काज बहुत कर्म करै । सो माया ले कुंडे धरै ॥5॥
अति अयान जानै नहीं मूढ । धन धरते अचला भयो धूल ॥6॥
काम क्रोध त्रिस्ना अति जरै । साध संगति कबूहूँ नहिं करै ॥7॥
प्रणवत नांमदेव ताकी आण । निरभै होइ भजौ किन राम ॥8॥
61
अपने राम कूं भजलै आलसीया । रांम बिनां जम जाल सीया ॥टेक॥
प्राणी असुमेध जग ने तुला पुरुषदांने, हरिं हरि प्राग सनाने ।
तऊ न तुलै हरि कीरति नांमा ॥1॥
प्रांणी गया पिंड भरता, बानारसियै बसता ।
मुष बेद पुरान पढता, तऊ न तुलै हरि कीरति नामा ॥2॥
प्राणी संकल धरम अछता, गुरु ग्यान इंद्री दिढता ।
षट करम सहित रहिता, तऊ न तुलै हरि कीरति नामा ॥3॥
प्रानी सकल सेवा श्रम बाद, छांडि छांडि बहु भेदं ।
सुमिरि सुमिरि गोबिंद, नांमदेव नांइ तिरै भौसिंधु ॥4॥
62
मनथिर होइ वारे न होइ । ऐसा चिहन करै संसार ।
भीतरि मैला धूतिग फिरै । क्यूं उतरै भव पार ॥टेक॥
रुद्राष सषा जप माला मंडै । ताकौ मरम न जानै कोई ।
आप न देषै और दिषावै । कपट मुक्ति क्यों होई ॥1॥
सींगी जटा बिभूति लगावै । संबर सिध कहावै रे ।
नाथन बोलषै मरम न जाणै । भाव चंडाली लावै ॥2॥
ब्रह्मा पढि गुणि बेद सुनावै । मन की भ्रांति न जावै ।
करम करै सो सूझै नाहीं । बहुतक करम कराई ॥3॥
मास दिवस लग रोजा साधै । कलमां बांग पुकारै ।
मनमें कांती जीव संघारै । नांव अलह का सारै ॥4॥
केवल ब्रह्म सत्ति करि जाण्यां । सहज सुनि मैं घ्याया रे ।
प्रणवत नामदेव गुरु प्रसादैं । पाया तिनही लुकाया ॥5॥
63
देवा बेनु बाजै गगन गाजै । सबद अनाहद बोलै ।
अंतरिगति की जानै नाहीं । मूरिष भरमत डोलै ॥टेक॥
चंद सूर दोउ समकरि राषूं । मन पवन दिठ डांडी ।
सहजै सुषमन तारा-मंडल । इह विधि त्रिंस्नां षांडी ॥1॥
बैठा रहूं न फिरुं न डोलूं । भूषा रहूं न षाऊं ।
मरुं न जीऊं अहनिस भुगतूं । नहीं आऊं नहीं जाऊं ॥2॥
गगन मंडल मैं रहनि हमारी । सहजि सुनि गृह मेला ।
अंतरि धुनिमैं मन बिलमाऊं । कोई जोगी या गम लहैला ॥3॥
पाती तोडि न पुजूं देवा । देवलि देव न होई ।
नामा कहै मैं हरि की सरना । पुनरपि जन्म न होई ॥4॥
64
देवा गगन गुडी बैठी मैं नाहीं तब दीठी ॥टेक॥
जब लीग आस निरास बिचारै तब लगि ताहि न पावै ॥1॥
कहिबौ सुनिबौ जबगत होइबौ तब ताहि परचौ आवे ॥2॥
गाये गये गये ते गाये अगई कूं अब गाऊं ॥3॥
प्रणवत नांमा भए निहकामा सहजि समाधि लगाऊं ॥4॥
65
जोगी जन न्याइ जुगे जुगि जीवै ।
आकास बांधि पाताल चलावै, आप भरे भरि पीवै ॥टेक॥
अंमृत षात पिता परमोघ्यौ माइ मुंई करि सोग ।
भाई बंध की आस न पूगी भाजि गए सब लोग ॥1॥
बाहिली मूंदिलै माहिली चोघिलै पंच की आस मिटाइ रे ।
भणत नांमदेव सेवि निरंजन सहज समाधि लगाइ रे ॥2॥
66
देवा तेरा नीसान बाज्या हौ ।
ताल पषावज जंत्र बेनां अवसर साज्या हौ ॥टेक॥
लोहा तांबा बंदन कीन्हां पाय परी है बेरियां ।
भौसागर की संक्या छूटी मुक्ति भई है चेरियां ॥1॥
सिंघ भागा पूठि फेरि षांण लागी छेरिया ।
बाहरि जाता भीतरि पेष्या नामै भगतिनि बेरिया ॥2॥
67
संत प्रवेनी भगति आपिला । नहीं आपिला तौ प्राण त्यागिला ॥टेक॥
हमची थाती तुम भईला । अम्हचा जीवला किमची लागिला ॥1॥
च्यारि मुक्ति आठूं सिधि आपुइयां । भगति न आपौ दास नामईयां ॥2॥
नामदेव बीठल सनमुष बोलीला । भगति आपिला मुकति त्यागिला ॥3॥
राग सोरठि
68
याही गोविंदा चरन मेरो जीवरौ बसै रे ।
भगति न छांडौं हरिकीं लोग हंसैरे ॥टेक॥
गोबिंदा कै नाइं लीयें भवजल तिरिए रे ।
झूठी माया लागि लागि काहे कूं मरीए रे ॥1॥
साइं कूं सांकडै दीये सेवग भाजै रे ।
चिरकाल न कोई जीवै दोऊ पष लाजै रे ॥2॥
आपनां धन कारणि प्राणी मरणौं मांडै रे ।
भगति भगता जन काहे कूं छांडै रे ॥3॥
गंगा गया गोदावरी संसारी जांमा रे ।
सुपरसन नाराइन सेवग नांमा रे ॥4॥
69
देवा नटणी कौ तनमन बांसां बरतां मांहि रे ।
अनेक राजिंद्रा बैठे तिनही सूं चित नांहिरै ॥टेक॥
सुमति सरीर संवारै नटनी निहारै ।
राम नांम नीसान बाजै इहि तत पावै धारै ॥1॥
एक मन एक चित षेलीलै षेलारे ।
मरकट मूठी छांडिदै ज्यूं मुक्ति भैलारे ॥2॥
धरनीधर सूं ध्यान लागौ आप अंतरजामीरे ।
नांमदेव नटवा ह्रै नाच्या तौ रीझ्यौ स्वामी रे ॥3॥
70
भाई रे भरम गया भौ भागा । तेरा जन जहां का तहां जाइ लागा ॥टेक॥
बाजीगर डाक बजाई । सब दुनी तमासै आई ।
बाजीगर षेल सकेला । तब आपै रहौ अकेला ॥1॥
रामराई माया लाई । सब दुनिया सौदै आई ।
सब दुनिया सौदा कीन्हां । काहू आतम राम न चीन्हां ॥2॥
मृग षेत विझूका देषै । भैचकि भैचकि पेषै ।
निकटि गया सुधि पाई । अडवाथैं कहा डराई ॥3॥
यहु मृघन षेत विझूका । गई संक्या मन टूका ।
नामदेव सतगुर समझावै । याही थैं कहा बतावे ॥4॥
71
जहां तहां मिल्यौ सोई । ताथैं कहै सुनै सब कोई ॥टेक॥
अभेदै अभेद मिल्यौ । भेदै मिल्यौ भेदू ।
सहज सोई सहज मिल्यौ । षेले मिल्यौ षेलू ॥1॥
दुष सोई दुषै मिल्या । सुषै सुष समानां ।
ग्यान सोई ग्याने मिल्यौ । ध्यानै मिल्यौ ध्याना ॥2॥
देष्यौ कहूं तौ निफ्ट झूठा । सुनी कहू तो झूठारे ।
नामदेव कहै जे अगम भण । तौ पूछया ही अण पूछया रे ॥3॥
72
बीठला भंवरा कंवल न पावै । ताथै जन्म जन्म डहकावै ॥टेक॥
दादुर ऐक बसै पडवणि तलि । स्वाद कुस्वाद न पावै ।
पहुप बास का लुबधी भौंरा । सौ जोजन फिरि आवै ॥1॥
महणारंभ होत घट भीतरि । रवि ससी नेत बिलौवै ।
वो हालै वो ठौर न पावै । ताथैं भौंरा जुगि जुगि रोवै ॥2॥
उपजी भगति पचीसूं परिहरि । बहोरि जन्म नहीं आवै ।
अषंड मंडल निराकार मैं । दास नांमदेव गावै ॥3॥
73
रे मन पंछीया न परसि पिंजरै । संसार माया जाल रे ।
येक दिन मैं तीन फेरा । तोहि सदा झंपै काल रे ॥टेक॥
धन जोबन रुप देषि करि । गरव्यो कहा गंवार रे ।
कुंभ कांचौ नीर भरीयो । बिनसतां नहीं बार रे ॥1॥
अमी कुंदन कपूर भोजन । नित नवा सिंगार रे ।
हंस कावडि छाडि चाल्यौ । देह ह्रैहै छार रे ॥2॥
ते पिता जननी आहि ल्यछमी । पूत सब परिवार रे ।
अंति ऊभा मेल्हि करि । ऐकलो जाइ नहीं लार रे ॥3॥
बरस लगि तेरी माइ रोवै । बहनडी छह मास रे ।
अस्त्री रोवै दस देहाडा । चित वंती घर बास रे ॥4॥
भनत नांमदेव सुनूं हो तिलोचन । घटिदया ध्रम पालि रे ।
पाहुनां दिनच्यारि केरा । सुकृत राम संभारि रे ॥5॥
राग गौडी
74
अदबुद अचंभा कथ्या न जाई । चींटी के नेत्र कैसे गजिंद्र समाई ॥टेक॥
कोई बोलै नेरे कोई बोलै दूरि । जल की मछली कैसे चढै षजूरि ॥1॥
कोई बोलै इंद्री बांध्या कोई बोलै मुक्ता । सहजि समाधि न चीन्हे मुगधा ॥2॥
कोई बोलै बेद सुमृत पुरांना । सतगुरु कथीया पद निरवानां ॥3॥
कहै नांमदेव परम तत है ऐसा। जाकै रुप न रेष वरण कहौ कैसा ॥4॥
75
देवा आज गुडी सहज उडी । गगन मांहि समाई ।
बोलन हारा डोरि समांनां । नहीं आवै नहीं जाई ॥टेक॥
तीन रंग डोरि जाके । सेत पीत स्याही ।
छांडि गगन वाजि पवन । सुर नर मुनि चाही ॥1॥
द्वादसतैं उपजी गुडी । जानै जन कोई ।
मनसा कौ दरस परस । गुरु थैं गम होई ।2॥
कागद थैं रहित गुडी । सहज आनंद होई ।
नांमदेव जल मेघ बूंद । मिलि रह्या ज्यूं सोई ॥3॥
76
काहे रे मन भूला फिरई । चेति न राम चरन चित धरही ॥टेक॥
नरहरि नरहरि जपिरे जीयरा । अवधि काल दिन आवै नियरा ॥1॥
पुत्र कलित्र धन चित बेसासा । छाडि मनारे झूठी आसा ॥2॥
तू जिनि जानै ग्रेही ग्रेहा । बिनसत बार कछू नहीं देहा ॥3॥
कहत नांमदेव झूठी देही । तौ सांची जे राम सनेही ॥4॥
77
राम नांमै बोलि नृवाण वाणी । जिभ्या आंन मिथ्या करि जाणी ॥टेक॥
को को न सारे को को न उधारे । बैकुंठ नाथ षसम हमारे ॥1॥
सोना की मालि पाषाण बेधिला । झींझ फूटी रामनांम अकेला ॥2॥
सपत पुरी नौ उषर भाई । रांम बिना कौने गति पाई ॥3॥
माटी देषि माटी कहा भुलाना । कहि समझावै दास नामा ॥4॥
78
मेरी कौन गति गुसाई तुम जगत भरन दिवा ।
जन्म हीन करम छीन भूलि गयौ सेवा ॥टेक॥
बडौ पतित पतितन मैं । गज गनिका गामी ।
और पतित जगत प्रकट । तिनहूं मैं नांमी ॥1॥
तुम दयाल मैं गरीब । टेरि कहौं रामा ।
दीन जानि बिनती मानि । गावै दास नामा ॥2॥
79
ऐवडी सीमौंनै बुधि आवडी । नाम न बिसरुं एकौ घडी ॥टेक॥
हरि हरि कहतां जे नर लाजै । जमस्की डांग तिनै सिरि बाजै ॥1॥
हरि हरि कहतां न कीजै बांतां । गयौ पाप जे पोतै हुता ॥2॥
नामदेव कहै मैं हरि हरि मनौं । कहै पाप अरु लाभ होई घनौ ॥3॥
80
ऐसे जगथैं दास नियारा ।
वेद पुरांन सुमृत किन देषौ पंडित करउ बिचारा ॥टेक॥
दधि बिलाइ जैसे घृत लीजे । बहुरि न ऐकठ थाई ॥
पावक दार जतन करि काढ्या, बहुरि न दार समाई ॥1॥
पारस परसि लोह जैसे कंचन, बहुरि न त्र्यंबक होई ।
आक पलास बेधीया चंदन, कास्ट कहै नहीं कोई ॥2॥
जे जन राम नाम रंगि राता, छाडि करम की आसा ।
ते जन रामै राम समानै, प्रणवत नामदेव दासा ॥3॥
राग माली गौडी
81
हमारै गोपालराजा गोपालराजा । और देव सूं नाहिन काजा ॥टेक॥
काहू सुमृत वेद पुराना । चरन कंवल मेरे मन माना ॥1॥
काहू के लाछिमी भंडार । मेरे राम को नांम अधार ॥2॥
काहूके है गै पाइक हाथी । मेरे रांम नांव संघाती ॥3॥
सरब लोक जाको जस गाजा । नांमां का चित हरि सूं लागा ॥4॥
82
कहि मन गोविंद गोविंद ।
चरन कवल चितवनि जिनि बिसरै गोविंद गोविंद गोविंद ॥टेक॥
अंतरि गर्भ सह्यौ दुष भारी । आवत जात परयौ मै हारी ॥1॥
भणत नांमदेव हरिगुण गाऊं । बहुरि न भवजल नीरौं आऊं ॥2॥
83
राम गोविंद कमोदनि चंदा । छिन छिन पांन करै मकरंदा ॥टेक॥
जैसे कमल में कुसमलताई । मधि गोपाल परसि फिरि आई ॥1॥
अष्ट कंवल दल नांमदेव गावै । चरन कंवल रज काहे न पावै ॥2॥
84
जपि रांमनांम महामंत्र । रांम बिना नहीं मुकति अनंत्र ॥टेक॥
महादेव उपदेसी गौरी । राम नांम जपि रसनां बौरी ॥1॥
जो पद नारद ध्रूं कूं सिषावा । सुरनि सुमृति संतनि सुष पावा ॥2॥
जन नांमदेव रांम नांम जपैला । चौरासि विष ऊतरि जैला ॥3॥
85
गुड मीठा राम गुड मीठा । जिनि लह्या तिनि गुन दीठा ॥टेक॥
नैननि पाया श्रवननि षाया । तृपित भई त्रिस्ना मधि माया ॥1॥
पांचं ऊष षनि ग्यान गंडासी । कोल्हू ध्यान धरौ तिह पासी ॥2॥
घट कूंडा जब होइ न दोषी । सहज अनल गुड सोनां होसी ॥3॥
गुरुत्वा सो गुडवाई साजा । सो गुड हुवा तिहूं पुर राजा ॥4॥
नांमदेव प्रणवै कस न मिठाई । जहां जतन सुमिरन बनि आई ॥5॥
राग रामगिरी
86
लाधौ तौ लाधौ मैं राम नांम लाधौ । प्रेमै पाटै सुत्रै पोयौ, कंठि लै बांधौ ॥टेक॥
राम नाम ततसार । सुमरि सुमरि जन उतरे पार ॥1॥
रामं जननी राम पिता । राम बंधू भौ तारिता ॥2॥
भणत नांमदेव हरि गुण गाऊं । बहुरि न जोनी संकुट आऊं ॥3॥
87
वाद छाडि रे भगता भाई । हरि सी तैं निधि पाई ।
राम तजि मेरो मन अनत न जाई ॥टेक॥
जप माला तागै पोई । सरीर अंतरि है सोई ।
वादि विमुष हरि बिनु दिन षोई ।
राम नाम जपि लोई । परम तत है सोई ।
तीनौ रे त्रिलोक व्यापै दूजौ नहिं कोई ॥1॥
सजीवन मूरी सोई नटारंभ संगि गाई ।
रामनाम बिन नाहीं आन उपाई ।
नामदेव उतर्यौ पार । चेतहु रे चेतन हार ।
हरि की भगति बिन औतरोगे बारंबार ॥2॥
88
हरि लै हरि लै हरि लै हरि ।
अपनी भगति रांम करि लै षरी ॥टेक॥
तुमसा ठाकुर कीजै । काहे न प्रतीति लीजै ।
अपनी बापौती कारणि प्राण दीजै ॥1॥
तुमची प्रतीति आई । दुरमति तजिले भाई ।
सुत कूं जननी कैसे विष पाई ॥2॥
बालक जे रुदन करे । मझ्या जैसे प्रांन धरे ।
पारब्रह्म पिता नांमा लाड लडै ॥3॥
89
छांडि छांडि रे मुगुध नर कपट न कीजै ।
गोविंद नाराइन नांम मुषां लीजै ॥टेक॥
कोटि जौ तीरथ करि । तन जो हिवालै गलै ।
पृथ्वी जे सकल परदछिन दीजै । करवत कासी मैं लीजै ।
सिव कू जो सीस दीजै । रामनाम सरि तऊ न तूलै ॥1॥
बानारसी तपि करै पलटि तीरथ फिरै ।
काया जे अगिनी मुष कलेस कीजै । हिरन गर्भ दान दीजै ।
अस्वमेध जग्य कीजै । रामनाम सरि तऊ न तुलै ॥2॥
मान जै सरोवर जइये । गया जौ कुरषेत्र न्हइये ।
गोमती सनान गऊ कोटि कीजै । कुंभ जौ केदार जइये ।
सिंघहस्त गोदावरी न्हइऐ । रांम नांम सरि तऊ न तूलै ॥3॥
अस्वदान गजदान भोमिदान कन्यादान ।
गृहदान सज्या दांन दांन दीजे ।
तन तुला तोलि दीजै । मन जौ नृमल कीजै ।
रामनांम समि तऊ न तुलै ॥4॥
जमहिं न दीजै दोस मनहिं न कीजै रोस ।
निरषि नृवाण पद रामनाम लीजै ।
आत्मा अंगि लगाइ । सेविलै सहज भाइ ।
भणत नामईयौ छीपौ अंमृत पीजै ॥5॥
90
राम भगति बिन गति न तिरन की । कोटि उपाइ जु करही रे नर ।
जल सींचै करि प्रवालै । आंब बबूल न फलही रे नर ॥टेक॥
आपा थापि और कूं नींदै । गर्व मान के मारे ।
फिर पीछे पछिताउगे बौरे । रतन न मिलहिं उधारे रे नर ॥1॥
यहु ममिता अपनी जिनि जानौ । धन जोबन सुत दारा ।
बालू के मंदिर बिनसि जांहिगे । झूठे करहु पसारा रे नर ॥2॥
जोग न भोग मोह नहीं माया । का भयौ बन मैं बासा ।
चरनं कंवल अनुराग न उपजै । तब लगि झूठी आसा रे नर ॥3॥
मनिषा जनम आई नहिं चेता । अंधे पसू गंवारा ।
तेरे सिर काल सदा सर साधै । नांमदेव करत पुकारा रे नर ॥4॥
91
कांइ रे भूले मूढे जना । चांमद करवा नहीं आपना ॥टेक॥
लोही रक्ता मंझा घनां । तुम जिनि जानौ तन अपना ॥1॥
भणत नांमदेव नाराइनां । रामनाम बिन धृग जीवना ॥2॥
92
आव कलंदर केसवा । धरि अबदालव भेष बाबा ॥टेक॥
ताज कुलह ब्रह्मांडै कीन्हां । पाव सप्त पतांल जी ।
चमर पोस मृत मंडल कीन्हां । इहि बिधि बनै गोपाल जी ॥1॥
अठारै भार का मुंदगर कीन्हा । सहनक सब संसार जी ।
छप्न कोटि का परहन कीन्हा । सोलह सहस इजार जी ॥2॥
माया मसीति मन मुलानां । सहज निवाजि गुजार जी ।
कंवला सेती काइण पढीया । निराकार आकार जी ॥3॥
सहर विसहर सबै तुम फिरीया । तेरा किन हूं मरम न पाया ।
नामदेव का चित हरि सूं लागा । आसण करौ रामराया जी ॥4॥
93
बैस्नौं ते मैं में ते वैस्नौं । सुनि नारद रिष सांच ।
जे भगता मेरे गुन गावै । ताकै अंतरिथ कौ मैं नाचौं नारद ॥टेक॥
नारद कहै सुनौ नाराइण । बैकुंठ बसौ कि कविलास ।
जहाँ मम कथा तहाँ मैं निहचै । बैस्नौ मंदिर बास नारद ॥1॥
गंगा सकल तीरथ करै । गुण चास कोटि करि आवै ।
ऐकादशी सहित संजम करै । ते मोंहि सुपने कदे न पावै नारद ॥2॥
जोगी जती तपी सन्यासी । ऐक मुनि ध्यान बईठा ।
जजै जग्य बेंद धुनि औचरै । तिनहूं कदे न दीठा नारद ॥3॥
जोग जग्गि तप नेम धरम व्रत । जब लगि इनकी आसा ।
बसुधा आदि देह दहिणांदिक । नहीं मम चरन निवासा नारद ॥4॥
जे भगता नृमल जस गावै । ते भगता भम सारं ।
जीया जीऊं पीया पीऊं । वैस्नौ मम परिवार नारद ॥5॥
बैस्नौ मैं दोई नाहीं नारद । प्रीति किया तैं आऊँ ।
भगति हेत यौ व्रत धर्यौ है । बैस्नौ हाथि बंधाऊ नारद ॥6॥
विसवाबीस आगै बरताऊं । निज जन नांव सूं राता ।
नामांनौ स्वामी परम पद आपै । भगति मुक्ति दोऊ दाता नारद ॥7॥
94
माधौ भीतरि मार दुहेली ।
अबला कौ बल कहा गुंसाई । परतषि जाइ न पेली ॥टेक॥
ऐ अनेक मैं एक गुसाई । कहौ कहा बस मेरा ।
षेत की पहुंचि कहां लौ राषै । षसम न करही फेरा ॥1॥
तुम से बैद न औषदि औरे । मंत्र और नहीं जाना ।
व्याधि असाधि दयानिधि । पचि पचि गये सयांना ॥2॥
जिनकूं तुम हरि कारी कीन्हीं । बिथा औरि नहीं व्यापी ।
नामदेव कहै नहीं बस मेरा । कृपा करौ दुष कापी ॥3॥
95
अवधू बेली विरधि करैली ।
निरगुण जाइ निरंजन लागी । मारीहूं न मरैली ॥टेक॥
सहज समाधै बाडी रे अवधू । सतगुरु बाही बेली ।
अमीमहारस सीचण लागा । तत तरवर जाइ चढैली ॥1॥
अमर बेलि अनभै जाइ लागी । टारी हू न टलैली ।
रुप रेष ताकै कछु नाहीं । चंदहिं कोटि फलैली ॥2॥
पांचूं मृघ पचीसूं मृघी । सूंघत देषि मरैली ।
निराकार नांमा तेरी बेली । अनंत अमर फल देली ॥3॥
96
अनेक मरि भरि जाहिंगे अवधू । ऐक रांम नांम तत रहैला ॥टेक॥
मुई जु आसा मुई जु त्रिस्ना । मुई जु मनसा माई ।
लोभ हमारी बहनी मूंई । तिनका सोच हम नाहीं रे अवधू ॥1॥
माई का गोत मद मछार मूवा । बापका गोत अहंकार ।
काम क्रोध भाई भतीजा मरि गया । तिनका सोच हम नाहीं रे अवधू ॥2॥
जा कारनी जोगेस्वर मूवा । तास घरनि मैं जाऊंगा ।
नांमदेव सतगुरु साहीला । गोविंद चरन निवासा रे अवधू ॥3॥
97
बैरागी रामहिं गाऊंगा ।
सबद अतीत अनाहद राता । अकुला कै घरि जाऊंगा ॥टेक॥
तीरथ जाऊं न जल मैं पैसूं । जीव जंत न सताऊंगा ।
अठसठि तीरथि गुरु लषाये । घट ही भीतरि न्हाऊंगा ॥1॥
पाती तोडि न पाहन पूजी । देवल देव न घ्याऊंगा ।
पांनि पांनि परसोतम राता । ताकूं मैं न सताऊंगा ॥2॥
वेद पुरान सास्त्र गीता । गीत कबीत न गाऊगा ।
अषंड मंडल निराकार मैं । अनहद बेनि अजाऊंगा ॥3॥
जडी न बूटी ओषद साधूं । राजबैद न कहांऊंगा ।
पूरण बैद मिल्यौ बनमाली । नित उंठि नाडि दिषांऊंगा ॥4॥
सदा संतोष रहूं आनंद मैं । साइर बूंद समाऊंगा ।
गगन मंडल मैं रहनि हमारी । पुनरपि जनमि न आऊंगा ॥5॥
इडा पिंगला सुषमनि नारी । पवनां मंझि रहाऊंगा ।
चंदसूर दोऊ समिकरि राषूं । ब्रह्म ज्योति मिलि जऊंगा ॥6॥
पांच सुभाई मन की सोभा । भला बुरा न कहांऊंगा ।
नामदेव कहै मैं केसव घ्याऊं । सहजि समाधि लगाऊंगा ॥7॥
98
पुरिष हाजिर वरणि नाहीं । दूरि ठाढा बोलै मांहीं ॥टेक॥
ग्यांन ध्यांन रह्त षेलै । अदृष्टि मांह दृष्टि मेलै ॥1॥
संग लागा भेष काछै । सारीषा आगै अरु पाछै ॥2॥
निगंध रुप विवरजित बासा । प्रणवत नांमदेव हरि दासा ॥3॥
99
देवा पातुर बाजै मादल नाचै । येवढा अंचंभा दीठा ।
पूछौ पढिया पंडिता । जल बैसंदर बूठा ॥टेक॥
चींटी ब्याई हस्ती जाया । येवढा अचंभा थाया ।
ऊभी ऊभी नांषीला । मैंमत घूमत आया ॥1॥
पांइन पंषि बिनाही उडिया । कैरुं डाली बैठा ।
नींब सदाफल सुफल फलिया । सो मोंहि लागै मीठा ॥2॥
ससै सींग मछै षुरी । भेड तडका कांनां ।
मांषी काजल सारन लागी । ऐसा ब्रह्म गियाना ॥3॥
गाई बियाई बछी जाई । गाई बछी कूं धावै ।
प्रणवत नामदेव गुरु परसादै । जो पोजै सो पावै ॥4॥
100
आज कोई मिलसी मुनै राम सनेही । तब पावै हमारी देही ॥टेक॥
भाव भगति मन मैं उपजावै । प्रेम प्रीति हरि अंतरि आवै ॥1॥
आपा पर दुविधा सबनासै । सहजै आतम ग्यान प्रकासै ॥2॥
जन नांमा मन षरा उदास । तब सुष पावै मिलै हरिदास ॥3॥
101
नाराइंन सूं मन न रंजै । संजम चूकै अरु ब्रत षंडै ॥टेक॥
ऐकादसी ब्रत जुगति न जानैं । चंचलचित मन थिर न धरै ॥1॥
पंच आतमा राषि न सकई । राम दोष दे भूष मरै ॥2॥
पर निंद्या जू आप परकास । झूठी साषि सहजि ठारै ॥3॥
परत्रिया सूं रमैं रैनि दिन । नेम धरम सबै हारै ॥4॥
जलहर पैसि पषालै काया । अंतरि मैल न तउ उतरै ॥5॥
भणै नांमदेव कछु न सूझै । पूजा कौन देव की करै ॥6॥
102
पांडे देह अरथि लगाई ।
सात बरस कौ मांहि हौ । तब पांच बरस की माई ॥टेक॥
अगम अलेष बिचारि देषौ । सुसै स्वान छिपाई ।
मीन जलकौ गगन चढीयौ । बाघ षेदे गाई ॥1॥
समंद भीतरि बूंद जाचै । बूंद समंद समाई ।
नामदेव कै ऐक सोई । अलष लष्यौ न जाई ॥2॥
103
मन मंझा तूं गोविंद चरण चित लाइ रे ।
हरि तजि अनत न जाइ रे ॥टेक॥
बलिराजा धुंधमार, न जीवै जुग चार ।
मेरी मेरी करता, ते भी गये रे मन मंझा ॥1॥
रे मन मछिद्रनाथ सहस चौरासी होते ।
ते भी देषत काल लीये रे मन मंझा ॥2॥
रवि ससि दोऊ भाई, फिरत गगन लाई ।
ऐसे भूला भ्रम सब जा रे मन मंझा ॥3॥
अहंकार दिन दस राषिलै दिनच्यार ।
पसुडानै मुकति न होई रे मन मंझा ॥4॥
नामदेव छीप्यौ चौपई गाई ।
जाका जैसा भावै तिन तैसी सिधि पाई रे मंझा ॥5॥
रागा आसावरी
104
जोगिया जिनी षरचसि दामा । सूंम की नाईं भेटिलै रामा ॥टेक॥
बाई कौ दाम न षरचौ भावै । गांठि परै तब परचौ आवै ॥1॥
भणत नांमदेव राषिलै थाती । प्रगटी जोति जहां दीवा न बाती ॥2॥
105
झिलिमिलि झिलिमिलि झिलिमिलि तारा ।
सो झिलिमिलि तिहुं लोक पियारा ॥टेक॥
रहै अकास पडै नहीं दिष्टी । पकड्या जाइ न आवै मुष्टी ॥1॥
दीपक पषै तेल बिन बाती । जोति सरुप बलै दिन राती ॥2॥
भणत नांमदेव अमर पद परस्या । पिंडभया मुकति तया तत दरस्या ॥3॥
106
त्रिवेणी प्राग करहु मन मंजन, सेवो राजाराम निरंजन ॥टेक॥
पुरी द्वारिका निकटि गोमती । गंग जमुन बिच बहै सुरसती ॥1॥
अठसठि तीरथ मधि सरोवर । ऐक तया तामैं ताकौं घर ॥2॥
भणत नांमदेव सुणौं तिलोचन । ए तीरथ सब अघके भोचन ॥3॥
107
माधौजी माया मिलन न देई । जन जीवै तौ करै सनेही ॥टेक॥
माया जलधर मोर मन मछी । नीर बिना क्यों जीवै हो पियासी ॥1॥
जे मोडौं तौ मूल बिनासा । बोझ पड्या नहीं आवै सांसा ॥2॥
भणत नामदेव दीन दयाला । निरधारन के तुम आधारा ॥3॥
108
माधौ माली एक सयाना । अंतरिगत रहै लुकानां ॥टेक॥
आपै बाडी आपै माली, कली कली कर जोडै ।
पाके काचे, काचे पाके, मनि मानै ते तोडै ॥1॥
आपै पवन आपही पाणी, आपै बरिषै मेहा ।
आपै पुरिष नारि पुनि आपै आपै नेह सनेहा ॥2॥
आपै चंद सूर पुनि आपै, आपै धरनि अकासा ।
रचनहार विधि ऐसी रची है, प्रणवै नामदेव दासा ॥3॥
109
काल न्याइ विचारि हौ । काइथ बांभण तिलक सुमिरि हौ ॥टेक॥
चारि बेद चौ धरणी । नरक पडौ धरमादिक करणी ॥1॥
सूझणि ना परि धांधे । चंद सूर दोउ उर धरि बांधे ॥2॥
बांभण मद भरि सरवा । जतन पीवै तत मातल बरवा ॥3॥
हरि कौ दास भणै नामा । राम नाम बिन और न जाना ॥4॥
110
जाणौं नै जाणौं बेद पुरानां । छोडौं पाना पोथी ।
बिन मेघा मुकताहल बरवै । भ्रब निरंतर मोती ॥टेक॥
बिनै बजाया बाजा बाजै । नादै अंबर गाजै ।
बिन भेरै होत झणकारा । न दीसै बजांवण हारा ॥1॥
बिन पावक जोती ही दीसै । सुनि मैं सूता जागै ।
अंधियारानौ भौ भागोरे भाई । जे जोइये ते आगै ॥2॥
कर जोडिनै नामौ बिनवै । मैं मूरिष मति थोडी ।
ये पदनौं हेतारथ जांणै । तेन्है पगि लागूं करजोडी ॥3॥
111
जब तब रांमनांम निसतारै ।
साठी घडी मैं ऐक घडी रे सोई सकल अघ जारै ॥टेक॥
कासीपुरी मंझि गौरपति अहनिसि सदा पुकारै ।
कीट पतंग सुनत गति पावै, गोविंद जस विसतारै ॥1॥
अजामेल गनिका, सुष पंषी, रसना रांम उचारै ।
गज पस व्याध तिरे हरि सुमिरत, महिमां व्यास विचारै ॥2॥
परम पुनीत नांव निसि बासुर, निज जन हरि ब्रत धारै ।
नामदेव कहै सोई दास कहावै, जीय तै छिन न बिसारै ॥3॥
112
बापजी येतलौं अंतर कीधौं । जनम नाउं दरजीनौं दीधौं ॥टेक॥
बाभण उचरै बेदनै वाणी । जेतलौ अंतरौ दूधनै पाणी ॥1॥
जाग्रतनै आव्या व्यासनै भांटा । उठौं नांमदेव नांषिये छांटा ॥2॥
हमारी भगति न जाणी हो रामा । हंसि करि कृष्ण बुलाये नांमा ॥3॥
राग भैरुं
113
नामदेव प्रीति नराइंण लागी । सहज सुभाइ भए बैरागी ॥टेक॥
जैसी भूषै प्राति अनाज । तृषावंत जल सेती काज ।
मूरिष नर जैसे कुटुंब पराइण । ऐसी नामदेव प्रीति नराइन ॥1॥
जैसे पर पुरिषा रत नारी । लोभी नर धन कौ हितकारी ।
कामी पुरिष काम रत नारी । ऐसी नामदेव प्रीति मुरारी ॥2॥
जैसी प्रीति बालक अरु माता । ऐसें यहु मन हरि सौं राता ।
नामदेव कहै मेरी लागी प्रीति । गोबिंद बसै हमारे चीत ॥3॥
114
नाइं तिरौं तेरे नाइं तिरौं नाइं तिरौं हो बाप रामदेवा ॥टेक॥
नित अमावस नितै पुन्यू, नितै ही रवि चंदा ।
गंगा जमुना संगम देखूं, आनंद लहरि तरंगा ॥1॥
घट ही बेणी तीरथ आछै, मरम न जानै कोई ॥
चित्त विहंगम चेति न देषै, काहू लिपत न होई ॥2॥
ग्यांन सरोवर मंजन मंज्या, सहजै छूटिलै भरमा ।
नामा संगै राम बोलै, रामनाम निहकरमा ॥3॥
115
भगवंत भगता नहीं अंतरा । द्वै करि जानैं पसुवा नरा ॥टेक॥
छाडि भगवंत वेद विधि करै । दाझै भूजै जामैं मरै ॥1॥
कथनी वदनी सब कोइ कहै । करनी जन कोई विरला रहै ॥2॥
कहत नामदेव ममता जाइ । तौ साध संगति मैं रहया समाइ ॥3॥
116
रांम रांम रांम जपिबौ करै । हिरदै हरि जी कौ सुमिरन धरै ॥टेक॥
संडामरका जाइ पुकारे । पढे नहीं हम सब पचि हारे ।
हरि हरि कहै अरु ताल बजावै । चटरा सबै बिगारे ॥1॥
सब वसुधा बसि कीन्हीं राजा । बीनती करै पटरानी ।
पुत्र प्रहिलाद कह्यौ नहीं मानत । इहिं कछु औरै ठानी ॥2॥
राजसभा मिलि मंत्र उपायो । बालिक बुधि घणेरी ।
जलथल गिरि ज्वाला थैं राख्यो । राम राइ माया फेरी ॥3॥
काढि षडग काल ह्रै कोप्यौ । मोहिं बताइ तोहिं को राषै ।
षंभा मांहि प्रगट्यौ परमेश्वर । संकल बियापी सति भाषै ॥4॥
हरिनाकुसकौ उदर विदारयौ । सुर नर कीये सनाथा ।
भणत नामदेव तुम्ह सरणगति । राम अभै पद दाता ॥5॥
117
जौ बोलै तौ रामहिं बोलि । नहीं तर बदन कपाट न षोलि ॥टेक॥
जे बालिये तो कहिये रांम । आन बकन सौं नाहीं काम ॥1॥
राम नाम मेरे हिरदै लेष । राम बिना सब फोकट देष ॥2॥
नामदेव कहै मेरे एकै नाउं । रामनांम की मैं बलि जाउं ॥3॥
118
जपिरांम नाम मंत्रावला । कलियुग मरणां उतावला ॥टेक॥
दिवस गंवाया ग्रिह व्यौहार । राति जु आई अंधाकार ॥1॥
दूरि पयानां अवघट घाट । क्यों निस्तरिबौ संग न साथ ॥2॥
भणत नामदेव औघट तिरी । अरधै नांव उधारै हरी ॥3॥
119
मैला मलिता सब संसार । हरि निरमल जाकौ अंत न पार ॥टेक॥
मैला वीरज मैला षेत । मन मैला काया जस हेत ॥1॥
मैला मोती मैला हीर । मैला पवन पावक अरु नीर ॥2॥
मैला तीन लोक ब्रह्मांड इकवीस । मैला निसिबासुर दिनतीस ॥3॥
मैला ब्रह्मा मैला इंद्र । सहसकला मैला रवि चंद ॥4॥
सब जग मैला आनहिं भाई । जन निर्मल जब हरि गुन गाई ॥5॥
मैला पुनि अरु मैला पाप । मैला आनदेव का जाप ॥6॥
मैला तीरथ मैला दान । व्रत मैला पूजा सनांन ॥7॥
मैला सुर मैली सुरसरी । नामदेव कौ ठाकुर निरमल हरी ॥8॥
120
जागि रे जीव कहा भुलाना । आगै पीछै जाना ही जाना ॥टेक॥
दिवस चारि का गोवलि बासा । तामैं तोहिं क्यौं आवै हासा ॥1॥
इहि भ्रमि लागि कहां तू सोवै । काहे कूं जनम बादि ही षोवै ॥2॥
कहां तू सोवै बारंबारा । रामनाम जपि लेउ गंवारा ॥3॥
भणत नांमदेव चेति अयांना । औघट घाट अरु दूरि पयांना ॥4॥
121
छांडि दे रे मन हमिता ममिता । सब घट रांम रह्यौ रमि रमता ॥टेक॥
आसा करि मन जइये जहिंया । राम बिना सुष नाहीं तहिंया ॥1॥
जन की प्रीति अगम पियारी । ज्यों जल निरषि भरै पनिहारी ॥2॥
भणत नांमदेव सब गुन आगर । भजि हरि चरन कृपा सुष सागर ॥3॥
122
हरि भजि हरि भजि हरि भजि मूल । बिन हरि भजन परै मुषि धूल ॥टेक॥
अनेक बार पसु ह्रै अवर्यौ । लष चौरासी भरमत फिर्यौ ॥1॥
पायौ नहीं कहीं विश्राम । सतगुर सरनि कह्यौ नहीं राम ॥2॥
राज काज सुत बित सब जाइ । अविनासी सौं प्रीति लगाइ ॥3॥
इहिं उनमान भगत ब्रत धरै । जरा मरन भव संकट टरै ॥4॥
गुणसागर गोविंद गुण गाइ । अपनौ विरद बिसरि जिनि जाइ ॥5॥
प्रणवत नामदेव संत सधीर । चरन सरन राषै हरि नीर ॥6॥
123
जे न भजै नर नारांइना । ताका मैं न करौं दरसना ॥टेक॥
जाहिं सवारे आवहिं सांझ । ते नर गिनिए पसुवा मांझ ॥1॥
जिनके हरि नही अभिअंतरा । जैसे पसवा तैसे नरा ॥2॥
जैसी संतौ विष की डरी । तैसी पर घर की सुंदरी ॥3॥
परधन परदारा परहरी । तिनके निकटि बसै नरहरी ॥4॥
प्रणवत नामदेव नांका बिना । न सोहै बतीस लक्षनां ॥5॥
124
आन न जानौं देव न देवा । जित जित प्राण तित ही तेरी सेवा ॥टेक॥
तूं सुष सागर आगर दाता । तूं ही मेरे प्राण पिता गुर माता ॥1॥
नामौं भणै मेरे सब कुछ साईं । मनसा बाचा दूसर नाहीं ॥2॥
125
पांडे मोंहि पढावहु हरी । विद्या अपनी राषउ धरी ॥टेक॥
बारहू अक्षर की बाहूर खडी । हरि बिन पढिबे की आषडी ॥1॥
ररौ ममौ दोऊ अषिरा । पार उतारै भव सागरा ॥2॥
हम तुम पांडे कैसा बाद । रामनाम पढिहैं प्रहिलाद ॥3॥
पतरा पोथी परहा करौ । रामनाम जपि दुस्तर तरौ ॥4॥
थंभा मांहि प्रगट्यो हरी । नामदेव कौ स्वामी नरहरी ॥5॥
126
रामनांम मेरे पूंजी धनां । ता पूंजी मेरौ लागौ मना ॥टेक॥
यहु पूंजा है अगम अपार । ऐसा कोई न साहूकार ॥1॥
साह की पूंजी आवै जाइ । कबहूं आवै मूल गंवाइ ॥2॥
जारी जरै न काई षाइ । राजा डंडै न चोर लै जाइ ॥3॥
अलष निरंजन दीन दयाला । नामदेव कौ धन श्रीगोपाला ॥4॥
127
रामनांम मैं पिंड पषाला । मल नहीं लागै जपत गोपाल ॥टेक॥
रामनाम डूंगर सी सिला । धोबिया धोवै अंतरि मला ॥1॥
बरणांश्रम नाना मती । नांमदेव का स्वामी कंबलापती ॥2॥
128
हरि दरजी का मरम न पाया । जिनि यहु बागा षूब बनाया ॥टेक॥
पाणी का चित्र पवन का धागा । ताकूं सीवत मास दस लागा ॥1॥
स्यौं सुरवाल मुकट बनि आया । ये दोइ हीरालाल लगाया ॥2॥
भगति मुकति का पटा लिषाया । पूरण पारब्रह्म पद पाया ॥3॥
आपै सीवै पहिरावै । निरत नांमदेव नांव धरावै ॥4॥
राग कनडौ
129
तू मेरौ ठाकूर तूं मेरौ राजा हौं तेरे सरनैं आयो हो ।
जस तुम्हारौ गावत गोविंद न लोगनि मारि भगयो हो ॥टेक॥
आलम दुनी आवत मैं देषी साइर पांडे कोपिला हो ।
सुद्र सुद्र करि मारि उठायो, कहा करौ मेरे बाबुला हो ॥1॥
प्राण गये जे मुकति होत है सो तो मुकति न दीसै कोई हो ।
ये बांभण मोंहि सुद्र कहत हैं, तेरी पैज पिछौडी होई हो ॥2॥
भई चहूं दिसि अचिरज भारी, अदबुद बात अपारा हौ ।
दास नांमा कौ भयौ दुवारौ पंडित कौ पछिवारा हौ ॥3॥
130
दुरबल गरिबा राम कौं, हरि कौ दास मैं जन सेवग तेरा ॥टेक॥
अचार व्यौहार जाप नहीं पूजा, ऐसो भगत आयो सरनिला ॥1॥
नामा भणै मैं सेवग तेरा । जनमि जनमि हरि उरगिला ॥2॥
131
तुम्हारी कृपा बिना न पाइये हो । राम न पाई हो ॥टेक॥
भाव कलपतर भगति लता फल । सो फल रसाल कै बेसी देवा ॥1॥
नामौ भणै केसवे तूं देसी तर लाहाइणै । उपाये तुझे भणीजै ॥2॥
132
चूक भजीला चूक भजीला । चूकै चित अवतार धरीला ॥टेक॥
दृग हीणां औतार बषाणैं । अकल अगोचर एक न जाणैं ॥1॥
भूला जग पाषांण पुजीला । अंतरजामी उरि न सुझीला ॥2॥
जन नामदेव निरषि निरंजन घ्यावै । अंजन आवै जाइ न भावै ॥3॥
राग मारु षंभाइची
133
धनि दिहाडौं धनि घडीयै । साधो भाई गोविंदजी धरि आया ऐ ॥टेक॥
चंदन चौक पुरावज्योऐ । साधो भाई पांच सषी मिलि बधाया ऐ ॥1॥
गगन मंडल म्हारो बैषणोऐ । साधो भाई बाजै अनहद तूरौ ऐ ॥2॥
हरी जी आव्या म्हारै पाहुंणाऐ । साधो भाई आज बधावौ पूरौ ऐ ॥3॥
आंबा रि लागी बादलीऐ । साधो भाई झिरिमिरि बरषै मेहौ ऐ ॥4॥
गरीब नामदेव हरि भज्यौऐ । साधो भाई लोग हंसे बादी ज्यों ऐ ॥5॥
राग परजीयौ
134
लागी जनम जनम की प्रीति, चित नहीं बीसरै रे ॥टेक॥
जेन्है मुषडौ दीठै सुष थाई, तेन्हें कोई जाइ कहौ रे ॥1॥
जासों मन बांधी प्रीति अपार, अपरछन थई रह्यौ रे ॥2॥
भर्यौ सरवर लहर्या जाइ, धायौ नहीं पपीहरौ रे ॥3॥
तेन्हौ घन बिन तृपति न थाइ जोवौ तेन्हौ नेहरौ रे ॥4॥
दोइ लष चंदल दूरि कमोदनि बिगसै रे ॥5॥
जन नामदेव नौ स्वामी दीन दयाल, ते बेदनि लहै रे ॥6॥
राग कल्याण
135
नाचि रे मन राम के आगे । ग्यांन बिचारि जोग बैरागे ॥टेक॥
नाचै ब्रम्हा नाचै इंद । सहस कला नाचै रवि चंद ॥1॥
रामकै आगै संकर नाचै । काल विकाल अकाललहिं नांचै ॥2॥
नारद नाचै दोइ कर जोडि । सुर नांचै तैतीसूं कोडि ॥3॥
भणत नांमदेव मनहिं नचाऊं । मनके नचाये परम पद पाऊं ॥4॥
राग सारंग
136
भइया कोई तूलै रे रांम नांम ।
जोग जिग तप होम नेम व्रत ए सब कौने काम ॥टेक॥
एक पलै सब बेद पुरानां एक पलै अरध नांम ॥
तीरथ सकल अंहडै दीन्हैं तऊ न होत समान ॥1॥
नाद न बिंद रुप नहीं रेषां ताकौ धरिये ध्यांन ।
तीनि लोक जाकै उद्र समाना, सिभूं पद नृबान ॥2॥
भणत नामदेव अंतरजामी, संतौ लेउ बिचारी ।
रामनाम समि कोई न तूलै, तारण तिरण मुरारी ॥3॥
137
गोविंद राषउ चरणन तीर ।
जैसे तरवर पात परै झरि, बिनसै सकल सरीर ॥टेक॥
जब त्रिया उद्र कीयौ प्रतिपाल, ग्रभ संकट दुष भीर ।
नरसहै यूं बिनसि जावै, चलत मिटै नहीं पीर ॥1॥
जैसे भुतंगम पंष बिहूनौं, नलनी बिनि झरै नीर ।
नामदेव जन जम की त्रास तैं प्राण धरत नहीं धीर ॥2॥
राग धनाश्री
138
हमारै करत राम सनेही ।
काहे रे नर गरब करत है बिनसि जाइगी देही ॥टेक॥
उंडी षणि षणि नींव दिवाई, ऊंचे मंदिर छाये ।
मारकंडै ते कौन बडौ है, तिन सिरि द्यौस बलायै ॥1॥
मेरी मेरी कैरौ करते, दुरजोधन से माई ।
बारह जोजन छत्र चलत सिरि, देही गिरधनि षाई ॥2॥
सर्व सोवनी लंका होती रावण से अहंकारी ।
छाडि गये दर बांधे हाथी, छिन मैं भये भिषारी ॥3॥
दुरबासा सूं करी ठगौरी, जादौ सबै षपाये ।
गरब प्रहारी हैं प्रभु मेरौ नामदेव हरि जस गाये ॥4॥
139
बाल सनेही गोविंदा । अब जिनि छांडौ मोहिं ।
मैं तोसौं चित लाइयौ । मेरे अवर न दूजा कोई ॥टेक॥
तूं निर्गुण हौं गुण भरी । एकहिं मंदिर वास ।
एक पालिक पौढतें । अब क्यों भये उदास ॥1॥
बडी सौति मेरी मरि गई । भयौ निकटौ राजौ ।
अब हौं पीयकी लाडली । मेरो कबूहं न होइ अकाजौ ॥2॥
जेठ निमानौं परिहर्यौ । छांडि सुसर कौ हेत ।
पुरिष पुरातन व्याहियौ । कबहूं न होइ कुहेत ॥3॥
सासुरवाड्यों परिहर्यौ । पीहर लीयौ न्हालि ।
नामदेव कौ साहिब मिल्यौ । भागी कुलकी गाली ॥4॥
140
कपट मैं न मिलै गोविंद गुन सागर गोपाल ।
गोपी चंदन तिलक बनावै कंठहु लावै माल ॥टेक॥
मन प्रतीति नहीं रे प्रांनी औरन कूं समझाइ ।
लोकन कू वैकुथं पठावै, आपण जमपुरि जाइ ॥1॥
जानि बूझि विष षाइअये रे, अंधे अंधा हाथि ।
देखत ही कूंवै पडै, अंधो अंधा साथि ॥2॥
जोग जग जप तप तीरथ व्रत मन राषै इन पास ।
दान पुनि धरम दया दीनता, हरि की भगति उदास ॥3॥
भजि भगवंत भजन भजि प्रांनी छांडे अणेरी आस ।
बरना बरन सुभासुभ भजि करि, कौन भयो निज दास ॥4॥
कोमल विमल संत जन सूरा करैं तुम्हारी आस ।
तिन पर कृपा करौं तुम केसव प्रणवत नामदेव दास ॥5॥
141
तत कहन कूं रांम है भजि लीजै सोई ।
लीला तिन अगाध की गति लषै न कोई ॥टेक॥
कंचन मेर समान है, दीजै दुजि दाना ।
कोटि गऊ नित दान दें, नहीं नांव समाना ॥1॥
जोग जिग सूं कहा सरै, तीरथ असनांना ।
वौ सांप्पा सन भाजहीं, भजीये भगवाना ॥2॥
पूजण कूं साधू जणां, हरि के अधिकारी ।
इन संगि गोविंद गाइये, वै पर उपगारी ॥3॥
एकै मनिये दै दसा, हरि कौ व्रत धरीये ।
नांमदेव नांव जिहाज है, भौ सागर तिरीये ॥4॥
142
कहा ले आरती दास करै । तीनि लोक जाकी जोति फिरै ॥टेक॥
सात सुमंद जाकै चरन निवासा । कहा भये जल कुंभ भरे ॥1॥
कोटि भान जाकै नष की सोभा । कहा भयौ कर दीप फिरै ॥2॥
अठार भार जाकै बनमाला । कहा भये कर पहोप धरै ॥3॥
अनंत कोटि जाकै बाजा बाजै । कहा घंटा झणकार करै ॥4॥
चौरासी लष व्यापक रांमा । केवल हरि जस गावै नामा ॥5॥
143
आरती पतिदेव मुरारी । चवंर डुलै बलि जाऊं तुम्हारी ॥टेक॥
चहुं जुगि आरती चहुं जुगि पूजा । चहुं जुगि राम अवर नहीं दूजाअ ॥1॥
चहूं दिस देषै चहुं दिस धावै । चहुं दिस राम तहां मन लावै ॥2॥
आरती कीजै ऐसे तैसे । ध्रू प्रहिलाद करी सुष जैसे ॥3॥
अरधै राम अरध मधि रामा । पूरन सेइ सरै सब कामा ॥4॥
आनंद आत्म पूजा । नामदेव भणै मेरे दिव न दूजा ॥5॥ 144
गरुड मंडल आव । पृथ्वीपति गरुड मंडल आव ॥टेक॥
तू पृथ्वी पति जागृत केला । मैं गाऊं गुन राग रचेला ॥1॥
नामदेव कहे बालक तोरा । भक्तिदान दे साहेब मोरा ॥2॥
145
धीरे धीरे षाइबौ कथन न जैबौ । आपन षैबौ तब नृमल ह्रैबौ ॥टेक॥
पहली षैहों आई माई । पीछे षैहौं सगा जंवाई ॥1॥
उगलिबा चंदा गिलिबा सूर । फुनि मैं षैहों घर कौ ससूर ।
फुनि मैं षैहों पंचौ लोग । भणत नामदेव ये सिध जोग ॥2॥
146
तैसी चूक लीजै रे जग जीवना । अनभवल्या बिना ऐसी लषी न कुरसनां ॥टेक॥
पारब्रह्माची गोडी, नेणती बापुडी पडीते । सकैडै विषया संगे ॥1॥
सिलेसि घातले बैसाचे बैरणें । तेच बिधने नेतियार साचे ॥2॥
कमलनी दुरदुरा, ऐकजु बिटा । प्रमल मधु कधि न गैला ॥3॥
थाना चया दूधा न होसि बरपडा । अपुध सेचता उचडा, जनम गैला ॥4॥
नामा भणै तैसी चूकली तुझी तुझ देषता । अंमृत सेवता, चवै नौंणती ॥5॥
147
देवा, पाहन तारिअलें । राम कहत जन कस न तरे ॥
तारिले गनिका विपुरुप कुविजा । विआध अजामलु तारिअले ॥
चरणबधिक जन तेऊ मुकति भए । हउ बलिबलि जिन राम कहै ॥
दासीसुत जनु बिदरु सुदामा । उग्रसेन कउ राज दिए ॥
जपहीन, तपहीन, कुलहीन क्रमहीन । नामेके सुआमी तेउ तरे ॥
148
एक अनेक बिआपक पूरन जत देखउ तत सोई ॥
माइआ चित्र बचित्र विमोहित बिरला बूझै कोई ।
सभु गोविंदु है, सभु गोविंदु है गोविंदु बिनु नहि कोई ॥
सूत एकु मणि सत सहंस जैसे उतिपोति प्रभु सोई ॥
जलतरंग अरु फेन बुदबुदा, जलते भिन्न न कोई ॥
इहु परपंचु पारब्रह्म की लीला बिचरत आन न होई ॥
मिथिआ भरमु अरु सुपनु मनोरथ सति पदारतु जानिआ ॥
मुक्ति मनसा गुरु उपदेसी, जागत ही मनु मानिआ ॥
कहत नामदेऊ हरि की रचना देखहु रिदै विचारी ॥
घट घट अंतरि सरब निरंतरी केवल एक मुरारी ॥
149
पारब्रह्म मुजि चीनसी आसा ते न भावसी ॥
रामा भगतह चेतीअले अचिंत मनु राखसी ॥
कैसे मन तरहिगा रे संसार सागरु बिखै को बना ॥
झूठी माइआ देखि के भूला रे मना ॥
छीपे के घरि जनमु दैला गुर उपदेसु भैला ॥
संतह कै परसादि नामा हरि भेटुला ॥
150
जै राजु देहि त कवन बडाई । जै भीख मंगावहि त किआ घटि जाई ॥
तूं हरि भज मन मेरे पढु निरबानु । बहुरि न होई तेरा आवन जानु ॥
सभ तै उपाई भरम भुलाई । जिस तूं देवहि तिसहि बुझाई ॥
सतिगुरु मिलै त सहसा जाई । किस हऊ पूजऊ दूजा नदरि न आई ॥
एकै पाथर कीजै थाऊ । दूजै पाथर धरिए पाऊ ॥
जै इहु देऊ तहु भी देवा । कहि नामदेऊ हम हरिकी सेवा ॥
151
पाड पडोसणि, पूछिले नामा, कापहि छानि छवाई हो ॥
तोपहि दुगनी मजूरी देहउ मोकउ बेढी देहु बताई हो ॥
री बाई वेढा देनु न जाई ॥
देखु बेढी रहिउ समाई ॥
हमारै बेढी प्रान अधारा ॥
बेढी प्रीति मजूरी मांगे जउ कोऊ छानि छवावै हो ॥
लोग कुटुंब समहु ते तेरै तउ आपन बेढी आवै हो ॥
ऐसो बेढ बरनि न साकउ सभ अंतर सभ ठाईं हो ॥
गूंगे महा अमृतरस चाखिआ पूछे कहनु न जाई हो ॥
बेढा के गुन सुनि री बाई जलधि बांधि ध्रु थापिउ हो ॥
नामेके सुआमी सीअ बहोरी लंक भभीखण आपिउ हो ॥
152
अणमडिआ मंदलु बाजै । बिनु सावन धनहरु गाजै ॥
बादल बिनु बरखा होई । जउ ततु बिचारै कोई ॥
मोकउ मिलिउ रामु सनेही । जिह मिलिऐ देह सुदेही ॥
मिलि पारस कंचनु होइआ । मुख मनसा रतनु परोइआ ॥
निज भाऊ भइया भ्रमु भागा । गुरु पूछे मनु पति आगा ॥
जल भीतरि कुंभ समानिआ । सभ रामु एकु करि जानिआ ॥
गुर चेले है मन मानिआ । जन नामै ततु पछानिआ ॥
153
पतितपावन माधऊ विरदु तेरा । धनि ते वै मुनिजन दिआइउ हरी प्रभु मेरा ॥
मेरे माथै लागीले धूरी गोविंद चरणन की । सुर नर मुनि जन तिनहु ते दूरी ॥
दीन का दइआलु माधो गरब परिहारी । चरण सरन नामा बलि तिहारी ॥
154
कुंभार के घर हांडी आछै राजा के घर सांडी गो ॥
बामन के घर रांडी आछै रांडी सांडी हांडी गो ॥
बाणी के घर हींगु आछै भेसर माथे सींगु गो ॥
देवल मधे लींगु आछै लींगु, सींगु, हींगु गो ॥
तेली के घर तेलु आछै जंगल मधें बेल गो ॥
माली के घर केल आछै केल, बेल, तेल गो ॥
संता मधे राम आछै गोकल मधे सिआम गो ॥
नामे मधे गोबिंदु आछै राम, सिआम गोबिंब गो ॥
155
मै अंधुले की टेक तेरा नामु खुदंकारा । मै गरीब मै मसकीन तेरा नामु है अधारा ॥
करीमा रहिमा अलाह तूं गनी । हाजार हजूरी दरि पेसि तूं मनी ॥
दरिआऊ तूं निहंद तूं बिसिआर तूं धनी । देहि लेहि एक तूं दिगर को नही ॥
तूं दाना तूं बीना मै बीचारु किया करी । नामेचे सुआमी बखसंद तूं हरी ॥
156
हले यारां हले यारां खुसि खबरी । बलि बलि जांऊ हऊं बलि बलि जाऊं ॥
नीकी तेरी बिगारी आले तेरा नाऊ । कुजा आमद कुदा रफती कुजा मेरवी ॥
द्वारिका नगरी रासि बुगोई । खूबु तेरी पगरी मीठे तेरे बोल ॥
द्वारिका नगरी काहे को मगोल । चंदी हजार आलम एक लखाणा ॥
हम चिनी पातिसाह सांवले बरना । असपति गजपति नरह नरिंद ॥
नामे के स्वामी मीर मुकुंद ॥
157
बानारसी तपु करै उलटि तीरथ मरै । अगनि दहै काइआ कलपु कीजै ॥
असुमेध जगु कीजै सोना गरभदानु दीजै । रामनाम सरि तऊ न पूजै ॥
छोडि छोडि रे पाखंडा मन कपटु न कीजै । हरिका नामु नित नितहि लीजै ॥
गंगा जऊ गोदावरि जाइये । कुंभि जऊ केदार नाईये, गोमति सहसगऊ दानु कीजै ॥
कोटि जऊ तीरथ करै तनु जऊ हिवाले गारै । रामनाम सरि तऊ न पूजै ॥
असुदान गजदान सिहजा नारी । भूमिदान ऐसो दान नित नितहि कीजै ॥
आतम जऊ निरमाइलु कीजै । आप बराबरि कंचनु दीजै रामनाम सरि तऊ न पूजै ॥
मनहि न कीजै रोसु जमहि न दीजै दोसु । निरमल निरबाणु पदु चीनि लीजै ॥
जसरथ राइ नंदु राजा मेरा रामचंदु । प्रणवै नामा ततु रसु अंमृत पीजै ॥
158
मेरो बापु माधऊं तूं धनु केसो सावलीऊ विठुलाई ॥
कर धरे चक्र वैकुंठ ते आए गज हसती के प्रान उधारीअले ॥
दुहसासन की सभा द्रोपती अंबर लेत उबारिअले ॥
गौतम नारि अहालिया तारी या जन केतक तारिअले ॥
ऐसा अधमु अजाति नामदेऊ तऊ सरनागति आइअले ॥
159
बदहु कोन माधऊ मोसिऊ ।
ठाकुर ते जनु जन ते ठाकुरु खेलु परिउ है तोसिऊ ॥
आपन देऊ देहुरा आपन आप लगावै पूजा ।
जल ते तरंग तरंग ते है जल कहन सुनन कऊ दूजा ॥
आपहि गावै आपहि नाचै आप बचावै तूरा ॥
कहत नामदेऊ तूं ठाकुर जनु ऊरा तू पूरा ॥
160
आदि जुगादि जुगो जुगु ताका अंत न जानिआ ।
सरब निरंतरि रामु रहिआ रवि ऐसा रुपु बखानिआ ॥
गोबिंदु गाजै सबदु बाजै आनदरुपी मेरो रामइआ ।
बावन बीखू बाने बीखे बासु ते सुख लागिला ॥
तुमचे पारसु हमचे लोहा संग कंचनु भैइला ।
तू दइआलु रतनु लालु नामा साचि समाइला ॥
161
अभिमांन लीषां नर आयौ रे ।
पर आत्म आत्म नहीं चीन्हीं । नर वपु नांव धरायो रे ॥टेक॥
गरभबास मैं हुतौ दीनता । त्राहि त्राहि ल्यौ लायौ रे ।
हा हा करत विसंभर आगै । गहि आपदा छुडावौ रे ॥1॥
अब रातौ तै बिषै बासना । संग तृस्नां कै धायौ रे ।
गुन्हेगार गोबिंद देव कौ । कबहूं राम न गायौ रे ॥2॥
मैं हरि नांम अधार धार कै । साधू सरनि बतायौ रे ।
नांमदेव कहै समझि मन मूरिष । जौ समझै समझायौ रे ॥3॥
162
पावघे पावघे सहजै मुरारी ।
सबद अनाहद घंटा बाजै, बमेक विचारी बीठला ॥टेक॥
त्रिवेणी संगम मंजन करिहूं । मनैं बुझाया ।
नैन कुसुम करि चरचौं । चितै चंदन लाया ॥1॥
पाती प्रीति ध्यान ले । धूप दीपक ग्यांना ।
अजपा जपौं अपूज्या पूजौं । अजरामर थाना ॥2॥
जहां कुछ नाहीं तहां कुछ देषा । जीयरा लोभानां ।
आत्म केरे तेज मधे । तेज दीपानां ॥3॥
अनेक सूरज मिलि उदै किये हैं । ऐसी जोति प्रकासी ।
तहा निरंजन अंजन षोलै । वैकुंठ वासी ॥4॥
करम सकल कौ भेष धरयौ है । विषई विकारा ।
चंबर पवन गुन अषित करिहूं । सारंग धारा ॥5॥
बिना विप्र वेद धुनि उचरै । अधिक रसाला ।
बिना तूंबरि नारद नाचै भावै गावै । बाजहिं ताला ॥6॥
रुप अतीत सकल गुण रहता । गगन समाना ।
तहां ते अधिक लौ लागी । अंतरि ध्यानां ॥7॥
विष्णुदास नामईया संगे । भेटीला सोई ।
हरि हरि हरि हरि कीरतल करतां । इहि बिधि आनंद होई ॥8॥
163
लटकि न बोलूं बाप वर्तमान गाढौ ।
कोल्हा ऐवडा मोतीडा मैं मैं डोलै देषीला ॥टेक॥
छेली बेली बाघ जैला मांझरीया भै ठाढै ।
उडत पंषि मैं लवरु पेष्या नर लूंजै है हाडै ॥1॥
बावलियाचै पोटै मांषणियाचै पोटै ।
संषै सुनहा मारीला तहाँ मीडक अभिला लोटै ॥2॥
अम्है जगैला ब्राटदेस तहां माझी दूध कैला ।
व्रजै आटै गांझीला जहां चौदह रंजन भरिला ॥3॥
लटक्यौ गईयौ गढीया जौलै गठीया ऐवडै रौलै ।
उंडत पंष मैं मूंगी पेषी वांटी जे है डोलै ॥4॥
विस्नदास नामईयौ यूं प्रणजै ये छै जीव जीव ची उकती ।
लटक्यौ आछै सांगीला । ताछै मोक्ष न मुकती ॥5॥
केवल पूना प्रति में प्राप्त होनेवाले पद
164
नहीं ऐसो जन्म बारुंबार ।
कहीं पूरब लै पुनि पाईयौ । मनिषा औतार ॥टेक॥
ग्रभ बास मैं प्रतिपाल कीन्हीं । ताहि सुमरि गंवार ।
कहा उतर देहगौ । राजाराम कै दरबार ॥1॥
बधत पल पल घटत छिन छिन जात न लागै बार ।
तरवर सूं फल झडि पडै । बहौरि न लागै डार ॥2॥
संसार सागर मंडी बाजी । सुरति कीन्हीं सारि ।
मनिष जन्म का हाथि पासा । जीति भावै हारि ॥3॥
संसार सागर विषम तिरणां । निपट उंडी धार ।
सुरति निरति का बांधे भेरा । उतरिये लै पार ॥4॥
काम क्रोध मद लोभ लालच । ताहि बंध्यौ संसार ।
दास नामैं जग जीति लीया । केवल नांव अधार ॥5॥
165
उठिरे नांमदेव बाहरि जाइ । जहां लोग महाजन बैठे आइ ॥टेक॥
बांभण बनीयां उत्तिम लोग । नहीं रे नांमदेव तेरा जोग ॥1॥
बार बार सीधा कुण लेह । को छिपीया ढिग बैसण देह ॥2॥
हम तौ पढीया बेद पुरानां । तू कहा ल्यायौ ब्रह्म गियाना ॥3॥
नामदेव मनि उपरति धरी । हीन जाति प्रभु काहे मोरी करी ॥4॥
झाडि कबलीया चल्यौ रिसाइ । मठ कै पीछै बैठो जाइ ॥5॥
पगां घूंघरा हाथां तारी । नामदेव भगति करै पछि वारी ॥6॥
धज कांपी देवल धरहरया । नांमदेव सनमुषि दूबारा फिरया ॥7॥
नामदेव नरहरि दरसन भया । बांह पकडि मिंदर मै लीया ॥8॥
जैसी मनसा तैसी दसा । नांमदेव प्रणवै बीसो बिसा ॥9॥
166
आ भडै रे नौआ आ भणै रे ।
होति छोति कहि नहीं छीपा सूं । देवल मांही ना बडै रे ॥टेक॥
उत्तिम लोग देहरे आया । च्यारुं वरण चा भडै रे ॥1॥
उंठिभाई नांमदेव बाहरि आव । ज्यौं पंडित वेद भणैं रे ॥2॥
नामदेव उठि जब बाहरि आयौ । केसौ नै कल न परै रे ॥3॥
देवल फिरि नामा दिसि भईया । पंडित सब पांवा पडै रे ॥4॥
दास नामदेव कौ ऐसा ठाकुर । पण राषै हरि सांकडै रे ॥5॥ 167
गाई मन गोबिंद गाइ रे गाइ । तेरो हरि बिन जनम अकारथ जाइ ॥टेक॥
मनिषा जनम न बारंबार । तातै भजि लै रामपियार ॥1॥
रे मन गोबिंद काहे न गावै । मनिषा जनम बहुरि नहिं पावै ॥2॥
छाडि कुटिलाइ हरि भजि मनां । या जीवडा का लागू धना ॥3॥
अब कै नांमदेव भया निहाल । मिले निरंजन दीनदयाल ॥4॥
168
झिलिमिलि झिलिमिलि नूरा रे । जहं बाजै अनहद तूरा रे ॥टेक॥
ढोल दमामां बाजै रे । तहां सबद अनाहद माजै रे ॥1॥
फिर रायां जोति प्रकासी रे । जहां आपै आप अविनासी रे ॥2॥
जहां सूरिज कोटि प्रकासा रे । तहां निहचल नामदेव दासा रे ॥3॥ 169
गावै तौ गाइ भावै मति गावै राम । वाहि बदै बे काम ॥टेक॥
पढै गुनै अरु कथै अनेक । बसतु भली पकडि भांडे छै ॥1॥
जब लगि नाहीं हिरदै हेत । बीज बिना क्युं निपजै षेत ॥2॥
जिभ्या इंद्री नांहीं सुद्ध । बांझ भणां क्यों निकसै दुध ॥3॥
नामदेव कहै इक बुधि विचारि । बिनि परचै मति मरौ पुकारि ॥4॥
170
ऐसे ही मना रे मेरे ऐसे ही मनां । चलौ रे जहां साहिब अपनां ॥टेक॥
ज्यू सापों सर ले ने जाइ । जल को डर तो विलमग जाइ ॥1॥
ज्यूं पंथी पंथ मांही डरै । घर है दूरि रैनि जानि परै ॥2॥
बाल बुधि जैसे कोडी देह । रिधनां डर तौ सांस न लेह ॥3॥
ऐसे जारिम पऊ चरण करै । नामदेव कहै ताको कारिज सरै ॥4॥
171
तू सुष सागर नागर दाता । तू मेरे प्रारभ पिता अरु माता ॥1॥
और न जानूं देवी देवा । अपना राम की करि हूं सेवा ॥2॥
नामदेव कहै मोहि तारि गोसाईं । व्याध बनचर भील की नांईं ॥3॥
172
इन औसर गोबिंद भजि रे ।
यह परपंच सकल बिनसैगे माया का फंदन तजि रे ॥टेक॥
नांव प्रताप तिरे जठ जल मैं मांगत नांव कीयों हठ रे ।
बिन सेवा बिन दान पुनि बिन चाढि बिमांन सकल सझ रे ॥1॥
तन सरवर एक हंस बसेत हैं ताहूं काल करत फंद रे ।
नामदेव भनै निरंजन का गुन, राम सुमिरि पिंजरा सझिरे ॥2॥
173
माधो जी कहा करुं या मन कौ ।
मन मैमत नहीं बस मेरौ बरजत हार्यौ दिन कौ ॥टेक॥
स्वांति प्रमोधि लै घरि आंऊं धीर पकरि बैठाऊं ।
पीछै हीतै मतौ उपावै बहुरि न इहि घरि आऊं ॥1।
अम्रत झांडि बिषै क्यूं ध्यावै, करत आप मनि मायौं ।
कहै सुनै की कछू न मानै अनेक बार समझइयो ॥2॥
कब लग तंत रहूं या मनकै जतन कीया नहीं जाई ।
या अरदास करै जन नामौं, सुनि लीज्यौं राम राई ॥3॥
174
रुंडा राम जीसूं रंग लगाया रे । सहजि रंग रंग आया रे ॥टेक॥
ररै ममै की भांति लिषाई । हरि रंग में रैंणी रचि आई ॥1॥
प्रेमप्रीति का बेगर दीया । हरि रंग मैं मेरा मन रंगि लीया ॥2॥
नामदेव कहै मैं हरि गुण गांऊं । भौ जल मांहि बहौरि नहीं आऊं ॥3॥
175
रसना रंगी लै हरि नाम । लै हरि नाम सरै सब कांम ॥टेक॥
रसना है तूं बकबादणीं । राम सुन रै क्यों पापणी ॥1॥
रसना तौ पै मांगू दान । राम छांडि मति सुमरै आंन ॥2॥
जप तप तीरथ कौणे काम । नामदेव कहै मोंहि तारैगो राम ॥3॥
176
हरि बिन कौन सहाइ करैगो ।
जौ ऐसौ औसर बिसरैगो, तौ मरकट कौ औतार धरैगो ॥टेक॥
करम डोरि बाजीगर कै बसि, नाचत घरि घरि बार फिरैगौ ।
ले लुकटी तौहि त्रास दिषावै, जन जन कै तूं पाइ परैगौ ॥1॥
जूं हमाल सिरि बोझ बहत है लालच कै सांगि लागि मरैगौ ।
ज्यूं कुलाल चक्री कूं फेरै ऐसे तूं कई बार फिरैगौ ॥2॥
भजि भगवंत मुक्ति कै दाता, रामा कहया कछु ना बिगररैगौ ।
नांव प्रताप राषि उर अंतर, नामदेव सरणै उबरैगौ ॥3॥ 177
जागौ न बैरागी जोगी । यही अनोपमि बाणी जी ।
झिलिमिलि झिलिमिलि होइ निरंतर, सो गति बिरलौ जाणी जी ॥टेक॥
राग बैराग म्हारै मंडल चूवै, कारण क्या भीजै जी ।
निस अधियारा भौ भागा, सुनि मैं सूता जागूं जी ॥1॥
नारि न सारि तांत्य नहीं तूंबा, पत्र पवन न पाणी जी ।
एकै आसन दोइ जन बैठा, रावल नैरौ हिताणी जी ॥2॥
मनकरि हीरा तन करि कंथा, जम मनी परि जागूं जी ।
भणत नामदेव अनहद जाचूं, बैकूंथा भिष्या मांगू जी ॥3॥
178
सहज बोलणें बोल बोलीजै । पै अनुभौ बीना न नीपजै ॥टेक॥
राजहंस चाली कोण सीकवीला । सांगई मोरुला कवणै नाचविला ॥1॥
चंदन शीतल कोणै केला । पै लासी थाना डीट कोणै केला ॥2॥
पहुप बास कोणै दीधली परिमला । सांगी माणिकास कोणे दीधली कीला ॥3॥
सुरै अथी कोकीला पै सीत वीना नई वैर साला ॥4॥
अमृतास कोणै दीघलै गोडी । जिहा नींबंडी बलतीस बोबडी ॥5॥
नामदेव भणै संत संगती फडी । मैं कैसो चरणा निवडी ॥6॥
179
नको नको रे संसार महा जड । छांडी परपंच माहा कड ॥टेक॥
भला भुया चौया भांडई । तामई पांचई सई भांडई ॥1॥
पांच महद्भुत गुण त्रीवीधा । तार्मे भीन्न प्रकृती अषटधा ॥2॥
नामदेव भणै वैणी माया । चौर्यासी लख भर माया ॥3॥
180
जपी राम नाम नृ लै उरी । जीणों चरण आहिल्या उधरी ॥टेक॥
राजनाम मेरे हिरदै लखी । रामबिना सब फोकट देखी ॥1॥
जे बोलीये तो कहिये राम । अनेक बचन सों नाहीं काम ॥2॥
नामा भणैं मेरे यही नाउं । राम नाउं की मैं बलि जाउं ॥3॥
181
राजनाम नीसाण बागा । ताका मरम को जाणै भागा ॥टेक॥
बेद विवर्जितो, भेद विवर्जिती । ज्ञान विवर्जित शून्यं ।
जोग विवर्जिति जुगती विवर्जिति । ताहा नहीं पाप पुण्यं ॥1॥
सोंग विवर्जित भेख विवर्जित । डिंभ विवर्जित लीला ।
कहे नामदेव आपहा आप ही । व्याप्य सरीर सकला ॥2॥
182
हीन दीन जात मोरी पंढरी के राया ।
ऐसा तुमने नामा दरजी कायक बनाया ॥1॥
टाल बिना लेकर नामा राऊल में गाया ।
पूजा करते ब्रह्मन उनैन बाहेर ढकाया ॥2॥
देवल के पिछे नामा अल्लक पुकारे ।
जिदर जिदर नामा उदर देऊलहिं फिरे ॥3॥
नाना बर्ण गवा उनका एक बर्ण दूध ।
तुम कहां के ब्रह्मन हम कहां के सूद ॥4॥
मन मेरी सुई तनो मेरा धागा ।
खेचरजी कें चरण पर नामा सिंपी लागा ॥5॥
183
हम तो भूले ठाकुर जानें । तुम कौ गाई झूट दिवाने ॥1॥
नाला अप आप सागर हुवा । काहे के कारण रोता है कुवा ॥2॥
चंदन के साती लिंब हुवा चंदन । क्यौं कर रोवे देखो ए हिंगन ॥3॥
गुरु की मेहेर से नामा भये साधु । देखत रोने लगे जन हे भोंदु ॥4॥
184
राम विठ्ठला । हम तुमारे सेवक ॥1॥
बालक बेला माई विठ्ठल बाप विठ्ठल । जाती पाती गुलगोत विठ्ठस (ल) ॥2॥
ग्यान विठ्ठल ध्यान विठठल । नामा का स्वामी प्राण विठठल ॥3॥
185
भले बिराजे लंबकनाथ ॥धृ0॥
धरणी पाय स्वर्ग लोक माथ । योजन भर के हाथ ॥1॥
सिव सनकादीक पार न पावे । अनगन सखा विराजत साथ ॥2॥
नामदेव के आपही स्वामी । कीजे मोहि सनाथ ॥3॥
186
रामनाम बीन और नही दूजा । कृष्णदेव की करी पूजा ॥1॥
राम ही माई रामही बाप । राम बिना कुणा ठाई पाप ॥2॥
संपत्ती विपत्ती रामही होई । राम बिना कुण तारी हे मोही ॥3॥
भणत नामा अमृत सार । सुमरी सुमरी उतरे पार ॥4॥
187
पंढरीनाथ विठाई बतावो मुजे पंढरीनाथ विठाई ॥धृ0॥
मायबाप के सेवा करीये पुंडलीक भक्त सवाई ।
वैकुंठ से विष्णु लाये खडे करकर बतलाई ॥1॥
चन्द्रभागा बालबंट पर कबिरा धूम चलाई ।
साधुसंत की हो गई गर्दी भजन कुटाई खुब खाई ॥2॥
त्रिगुणा में रेनु बजावे सागर का जबाई ।
दही दूध की हंडी फुट गई मर मर मुधया पाई ॥3॥
नामदेव देके गुरु शिखावें खेचरी मुद्रा गाई ।
कृष्ण जी की बार बार गावै हरिनाम बढाई ॥4॥
188
मै को माधव मलमूत्र धारी । मै कहां जानो सेवा तुम्हारी ॥1॥
तुम्हरि घर को भांडवी दावत । तुम्हारे घरको आखि कलावत ॥2॥
नामदेव कहे देव नीके देवा । सुर नर फुनीग तुम्हारी सेवा ॥3॥
189
तुम बिनु घरि येक रहूं नहि न्यारा । सुन यह केसव नियम हमारा ॥
जहाँ तुम गीरीवर ताहां हम मोरा । जहाँ तुम चंदा तहां मैं चकोरा ॥1॥
जहाँ तुम तरुवर तहां मैं पछी । जहाँ तुम सरोवर तहां मैं मच्छी ॥2॥
जहाँ तुम दिवा तहां मैं बत्ती । जहाँ तुम पंथी तहां मैं साथी ॥3॥
जहाँ तुम शिव तहां मैं बेलपूजा । नामदेव कहे भाव नहीं दूजा ॥4॥
190
सावध सावध भज लेरे राजा । नहीं आवे ऐसी घडी जू ॥धृ0॥
उत्तम नरतनु पाया रे भाई । गाफल क्यों हुवा दिवाने जू ॥1॥
जिन्ने जन्म डारा है तुजकूं । विसर गया उनका ग्यान जू ॥2॥
फिर पस्तायेगा दगा पायेगा । निकल जायगा आवसान जू ॥3॥
क्या करना सो आजि करले । फिर नहिं ऐसी जोडी जू ॥4॥
हंस जायगा पिंजरा पडेगा । तुज कैसा भुल पडी जू ॥5॥
सुन्ने का मन्दिर मेहेल बनाया । धन संपत नहिं तेरी जू ॥6॥
यामै न और जोरु लडके । सुखके खातर सोर जू ॥7॥
अकेले आना अकेले जाना । सब झुटी माया पसरी जू ॥8॥
लख चौर्यासी का फेरा आवेगा । तब चुपी बैठे बंदे जू ॥9॥
फिरतां फिरतां जीव रमता है बाबा । कोन रखे तेरे तन कूं जू ॥10॥
जिस माया उदरी जन्म लियेगा । तेरे संगत दुख उनकू जू ॥11॥
गरमी की यातना सुनले रे भाई । नवमास बंधन डारे जू ॥12॥
नहीं जगा हलने चलने कू बाबा । छडनिकु कोई नहीं आवे जू ॥13॥
आग लगी क्या देख न आंधे । काय के खातर सोया जू ॥14॥
ऐसी बात सुन के नामा सावध हुवा । गुरुके पाव मिठी डारी ॥15॥
मैं आनाथ दुबले शरण सये तुजकू । आब जो मेरी लाज राखी जू ॥16॥
191
नामा तुं हि झूठा रे । तेरा पंथ झूठा रे ।
अल्लाहि अलम का साईं । सोहि गुप्त चहरा रै ॥1॥
मुसलमीन तो हंबी जाणी । नहीं राम कु तोली ।
पांच बखत निमाजु गुजारी । मस्जित क्यूं नहीं बोली ॥2॥
वाच्छाव तू ही तू दीवाना रे । तेरा तू हिं दीवाना रे ।
गाई की तो हंबी जाणी । खेती वीराणा खाती ।
एक पाव तो छीन लिया है । तीन पाव पर चल जाती ॥3॥
नामा तू हि बकरी काटी । मृगी काटी हलाल कीया कहता है ।
मुरगी में सो अंडा निकला । हलाल कैसा होता है ॥4॥
वाच्छाव बाबा आदम हंबा जाणें । ढबला नंदी आवे ।
सीरा लसेट का बेटा मारे । हराम खाना खावे ॥5॥ नामा तू हि झूठा रे ।
उन ने मारी उन ने तारा । उनने किया उत्धारा ।
मुवा पोगंडा आब जीवावै । ऐसा राम हमारा पाच्छा ॥6॥
दशरथ को दोनो बेटे, राम लछीमन भाई ।
डेरा छांड कर जंगल जावे । जोरु अपनी गमाई ॥7॥
नामा तू हि जल ऊपर, फत्तर तारी, आहिल्या नारि उत्धारी ।
रावण मारा विभिषण थापा लंका बक्से झौरी ॥8॥ पात्छा तूं ॥
गोऊ बछरा दोनऊं काटे नामा आगे डारे ।
नामदेव ने हाथ लगाया, बछरा पीवन लागे ॥9॥
अबतो भली बनी है जी, सबका धनी रामधनी है जी ।
नामा वाच्याव सहज मिलै, सांचा झगडा उनका ॥
ऊंचानीचा कर कर देख्यो, सोही ऊंचानीचा ॥10॥
केवल घुमान प्रति में प्राप्त होनेवाले पद
192
माधौ कैसे कीजै जोग ।
करत जोग बहुत कठिनाई तजि न सकौं या भोग ॥टेक॥
नहीं मेरे रहणीं नहीं मेरे करणीं, बंध्यौ पंच बसि पोष ॥1॥
नहीं मेरे ग्यान नहीं मेरे ध्यांना, व्यापै हरि षरसोक ॥2॥
मैं अनाथ सुकृत हीनौं, तुम्हथै पर्यौ बियोग ॥3॥
भणत नामदेव हरि सरणिं राषियौ, नहीं तौ हंसि हैं लोग ॥4॥
193
ताहि गावै दास नामा । संत जननि के पुरवै कामा ॥टेक॥
असपति नामदेव तमकि बुलाइया । बेगि पलींग ले आव रे ।
सवरि सपेती गलौ गीदवा । दर हालै लै आवरे ॥1॥
अंबरीक प्रहिलाद परीछत । जस गावै प्रभु तेरा ।
सुंदर स्वामि कमल दल लोचन । प्राण जीवन धर मोरा ॥2॥
अपनै पन कौ दीन दानं । दोऊ सनक जनावै ।
भगत जनन कौं ज्यों दामोदर । पुनरपि जनमि न आवै ॥3॥
त्रिभुवन धणी सकल परिपूरण । जस भरि नामदेव गावै ।
सूकी सेज जलहिं थै निकसी । ले दीवानि पहुंचावै ॥4॥
194
सुणि भई महिमा नाम तणीं । मारहा सतगुर पासै जौ मैं सुणीं ॥टेक॥
कोटि कोटि बार जो पढिये । सकल सास्त्र कौ लीजै भेद ।
पुरांण अठारह कौ त जोइ । रांमनाम समि तुलै न कोइ ॥1॥
कोटि कोटि कूप षणावै बाइ । कोटि कोटि कन्यां दे प्रणाइ ।
कोटि कोटि बार दीजै जागि । तुलै न राम सहस्त्र मैं भागि ॥2॥
बिस्व सगली जौ दीजै दानं । कोटि कोटि तीरथ कीजै अस्नांन ।
कोटि कोटि जप तप संधियान । तऊ न आवै नांम समान ॥3॥
गन गनिका गोतम बधु नारी । नृमल नांम एहौ छौ हरी ।
पतित अजामेल सरणै गयौ । भाव कुभाव जिनि हरि नाम लयौ ॥4॥
मुष नारद प्रहिलाद अभ्यास । सुमरयौ ध्रू सतिकरि विस्वास ।
तिनके हरि काटे भवफंद । ते इम चलै रब चंद ॥5॥
हिरदै सति करि सुमरयौ राम । आन धरम भब तजि बेकाम ।
भणत नामदेव हरि सरणां । आवा भेटि मरणां ॥6॥
195
जाबा न देख्यूं हो नर हरी ।मो नृधन कौ धन नरहरी ॥टेक॥
आगल थयौ अगोचर थाइसि । मारहारि दयाथकौं हो नरहरि ॥1॥
तीन लोक मैं कहीं न समाणौं । संतनि हिरदै समौं हो नरहरी ॥2॥
नामदेव कहै मैं सेवग तेरा । आवा गवण निवारि हो नर हरी ॥3॥
196
पायौ मैं राम संजीवनि मूरी । गुर मिल्यौ बैद बिथा गई दूरी ॥
पढि पुरांन पंडित बौराना । भ्रम क्रम संसार भुलानां ॥1॥
आन देव सब भ्रमकी पूजा । देह घरे कौ धरम न दूजा ॥2॥
फुनि मुनि वरनि धर्म मति चोषी । पीवत नांमदेव भये संतोषी ॥3॥
197
मलै न लाछै पारमलो परमलीउ बठोरी बाई ॥
आवत किनै न पेखिउ कवनै जानै री बाई ॥
कउणु कहै किणि बूझिऐ रमईआ आकुल री बाई ॥
जिंउ आकासै पंखिअसे खोज निरखिउ न जाई ॥
जिंउ जल माझै माछलो मारगु पेखणे न जाई ॥
जिंउ आकासै घडुअलो मृग तृसना भरिआ ॥
नामेचे सुआमी बीठलो, जिनि तीनै जरिआ ॥
198
जब देखा तब गावा । तउ जन धीरजु पावा ॥
नादि समाइलो रे सतिगुर भेटिले देवा ॥
जह झिलिमिलि कारु दिसंता ॥
तह अनहद सबद बजंता ॥
जोति जोति समानी । मै गुरपरसादी जानी ॥
रतनकमल कोठरी । चमकार बिजुल तही ॥
नैरै नाही दूरि । निज आतमै रहिआ भरपूरि ॥
जह अनहत सूर उजारा । तह दीपक जलै छंछारा ॥
गुर परसादी जानिआ । जतु नामा सहज समानिआ ॥
199
दस बैरागनि मोहि बसि कीनी पंचहु का मिटनावऊ ॥
सतरि दोई भरे अम्रितसरी बिखु कऊ मारि कढावऊ ॥
पाछै बहुरि न आवनु पावऊ ॥
अंम्रितबाणी घट ते ऊचरऊ आतमकऊ समझावऊ ॥
बजर कुठारु मोहि है छीना करि मिनती लगि पावऊ ॥
संतनकु हम उलटे सेवक भगतन ते डर पावऊ ॥
इह संसार ते तबही छूटऊ जऊ माइआ नह लपटावऊ ॥
माइआ नामु गरभ जोनिका तिह तजि हरसनु पावऊ ॥
इतुकरि भगति करहि जो जन तिन भऊ सगल चुकाइये ॥
कहत नामदेऊ बाहरि किआ भरमहु इह संजम हरि पाइये ॥
200
मारवाडि जैसे नीरु बालहा बेलि बालहा करहला ॥
जिउ कुरंक निसिनादु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥
तेरा नामु रुडो, रुपु रुडो, अंतिरंग रुडो मेरो रामईआ ॥
जिउ धरणी कऊ इंद्र बालहा कुसम बासु जैसे भवरला ॥
जिऊ कोकिल कऊ अंबु बालहा तिऊ मेरै मनीं रामईआ ॥
चकवी कऊ जैसे सुरु बालहा मानसरोवर-हंसुला ॥
जिऊं तरुणी कऊ कंतु बालहा तिऊ मेरे मनीं रामईआ ॥
बारिक कऊ जैसे खीरु बालहा चात्रिक मुख जैसे जलधरा ॥
मछुली कऊ जैसे नीरु बालहा तिऊ मेरे मनीं रामईआ ॥
साधिक-सिद्ध सगल मुनि चाहहि बिरलो काहू डीठुला ॥
सगल भवन तेरे नामु बालहा तिऊ नामे मनि बीठला ॥
201
पहिल पुरिए पुंडरक बना । ताचे हंसा सगले जना ॥
क्रिसना ते जानऊं हरि । हरि नांचंती नाचना ॥
पहिल पुरसा बिरा । अथोन पुरसा दमरा । असगा असउसगा ॥
हरिका बागरा नाचै पिंधी महीसागरा । नाचंती गोपी जंना ॥
नइआ ते बैरे कंना । तरकुनचा । भ्रमीआचा । केसवा बचउनी
अइए, मइए, एक आन जीऊ । पिंधी उमकले संसारा ॥
भ्रमी भ्रमी आए तुमचे दुआरा । तू कुनुरे । मै जी नामा ॥
आला ते निवारणा जम कारणा ॥
202
सफल जनमु मोकउ गुर कीना । दुख बिसारि सुख अंतरि लीना ॥
गिआन अंजनु मोकउ गुर दीना । राम नाम बिनु जीवनु मन हीना ॥
नामदेइ सिमरनु करि जाना । जगजीवन सीऊ जीऊ समाना ॥
203
मोकऊ तारिले रामा तारिले ॥
मै अजानु जनु तरिबे न जानऊ बाप बिठुला बाह दे ॥
नर ते सुर होइ जात निमख मे सतिगुर बुधि सिखलाई ॥
नर ते उपनि सुरग कऊ जीतिऊ सो अवखध मै पाई ॥
जहां जहां धूअ नारदु टेकै नैकु टिकावहु मोहि ॥
तेरे नाम अविलंबि बहुतु जन उधरे नामे की निज मति एह ॥
204
हरि हरि करत मिटे सभि भरमा । हरि के नामु ले ऊतम धरमा ॥
हरि हरि करत जाति कुल हरि । सो हरि अंधुले की लाकरी ॥
हरए नमस्ते हरए नमह । हरि हरि करत नहीं दुखु जमह ॥
हरि हरनाखस हरे परान । अजैमल किऊ बैकुंठ हि थान ॥
सूआ पढावत गनिका तरी । सो हरि नैनहु की पूतरी ॥
हरि हरि करत पूतना तरी । बाल घातनी कपटहि मरी ॥
सिमरन द्रौपत सुत ऊधरी । गऊतम सती सिला निसतरी ॥
केसी कंस मथनु जिनि कीआ । जीअ दानु काली कऊ दीआ ॥
प्रणवै नामा ऐसो हरि । जासु जपत भै अपदा टरी ॥
205
भैरऊ भूत सीतला धावै । खर बाहन ऊहु, छार उडावै ॥
हऊ तऊ एक रमईआ लेअऊ । आन देव बदलावनि देहऊ ॥
सिव सिव करते जो नरु धिआवै । बरद चढै डऊरु डमकावै ॥
महामाई की पूजा करै । नर सो नारि होइ अउतरै ॥
तू कहिअत ही आदि भवानी । मुकति की बिरिआ कहा छपानी ॥
गुरमति राम नाम रहु मीता । प्रणवै नामा इऊ कहे गीता ॥
206
आजु नामें बीठुला देखिआ मूरख को समझाऊ रे ॥
पांडे तुमरी गाइत्री लोधे का खेत खाती थी ।
लैकरि ठेगा तोरी लांगत लांगत जाती थी ॥
पांडे तुमरा महादेऊ धऊले बलद चढिआ आवत देखिआ था ।
मोदी के घर खाणा पाका वाका लडका मारिआ था ॥
पांडे तुमरा रांमचंदु सो भी आवतु देखिआ था ।
रावन सेती सरबर होइ घरकी जोइ गवाई थी ॥
हिंदू अंना तुरकू काणा दोहां ते गिआना सिआणा ॥
हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीत ॥
नामें सोई सेविआ जह देहुरा न मसीत ॥
207
माइ न होती बापु न होता करमु न होती काइआ ।
हम नहि होते तुम नहि होते कवनु कहाते आइआ ॥
राम कोइ न किसही केरा । जैसे तरवर पंखि बसेरा ॥
चंदु न होता सुरु न होता पानी पवनु मिलाइआ ।
सासत्र न होता बेदु न होता करमु कहां ते आइआ ॥
खेचर भूचर तुलसी माला गुर परसादी पाइआ ।
नामा प्रणवै परमततु है सतिगुर होइ लखाइआ ॥
208
धनि धनिउ राम बेनु बाजै । मधुर मधुर धुनि अनहत गाजै ॥
धनि धनि मेघा रोमावली । धनि धनि क्रिसन कांबली ॥
धनि धनि तूं माता देवकी । जिह ग्रिह रमईआ कवलापती ॥
धनि धनि बनखंड बिंद्रावना । जह बोले श्रीनाराइना ॥
बेनु बजावै गोधनु चरै । नामे का सुआमी आनंदु करै ॥
209
चारि मुकति चारै सिधि मिलीकै दूलह प्रभु की सरनि परिऊ ।
मुकति भइउ चहू जुग जानिउ जसु कीरति माथै छत्र धरिऊ ॥
राजाराम जपत को को न तरिउ गुर उपदेसि साध की संगति ।
भगतु भगतु ताको नामु परिऊ ॥
संख चक्र माला तिलकु बिराजित देखि प्रतापु जमु डरिऊ ।
निरभऊ भए राम बल गरजित जनम मरन संताप हिरिऊ ॥
अंबरीक कऊ दीउ अभैपद राजु भभीखन अधिक करिऊ ।
नऊनिधि ठाकुई दई सुदामै ध्रुअ अचलु अबहू न टरिऊ ॥
भगत हेति मारिउ हरनाखसु नरसिंह रुप होइ देह धरिऊ ।
नामा कहै भगति बीस केसव अजहू बलि के दुआर खरो ॥
210
रे जिहबा करऊ सत खंड । जासि न ऊचरसि श्रीगोविंद ॥
रंगिले जिह्रा हरि के नाइ । सुरंग रंगिले हरि धिआइ ॥
मिथिआ जिह्रा अवरे काम । निरबाणु पदु इकु हरिको नाम ॥
असंख कोटे अन पूजा करी । एक न पूजसि नामै हरि ॥
प्रणवै नामदेऊ इहु करणा । अनंत रुप तेरे नाराइणा ॥
211
दूध कठोरै गडवै पानी । कपिला गाइ नामै दुहिआनी ॥
दूधु पीउ गोबिंदे राइ । दूध पीउ मेरो मनु पतिआइ ॥
नाहीं त घर को बापु रिसाइ ॥ रहाऊ ॥
सोइन कटोरी अंम्रित भरी । लै नामै हरि आगै धरी ॥
एकु भगतु मेरे हिरदै बसै । नामे देखी नराइनु हसै ॥
दूधु पीजाइ भगतु धरि गइआ । नामें हरि का दरसनु भइआ ॥
212
मै बऊरी मेरा रामु भतारु । रचि रचि ताकऊ करउं सिंगारु ॥
भले निंदऊ भले विंदऊ लोगू । तनु मनु राम पिआरे जोगू ॥
बादुविबादु काहू सिऊ न कीजै । रसना रामु रसाइनु पीजै ॥
अब जीअ जानि ऐसी बनि आई । मिलऊ गुपाल नीसानु बजाई ॥
असतुति निंदा नरु कोई । नामें श्रीरंगु भेटले सोई ॥
213
कबहू खीरि खांड घीऊ न भावै । कबहू घर घर टूक मगावै ॥
कबहू कूरनु चने बिनावै । जिऊ रामु राखै तिऊ रहिऐ रे भाई ॥
हरिकी महिमा किछु कथनु न जाई ॥
कबहू तुरे तुरंग नचावै । कबहू पाइ पनहीउ न पावै ॥
कबहू खाट सुपेदी सुवावै । कबहू भूमि पैआरु न पावै ॥
भनति नामदेऊ इकु नामु निसतारै । जिह गुरु मिलै तिह पारि ऊतारै ॥
214
हसत खेळत तेरे देहुरे आइआ । भगति करत नामा पकरि उठाइआ ॥
हीनडी जात मेरी जादभ राइआ । छीपे के जनमि काहे कऊ आइआ ॥
लै कमली चलीउ पलटाइ । देहुरै पाछै बैठा जाई ॥
जिऊ जिऊ नामा हरि गुण ऊचरै । भगत जनां कऊ देहुरा फिरै ॥
215
घर की नारि तिआगै अंधा । परनारी सिऊ घालै धंधा ॥
जैसे सिंबलु देखि सूवा बिगसाना । अंतकी बार मूआ लपटाना ॥
पापी का घरु आगने माहि । जलत रहै मिटवै कब नाहि ॥
हरि की भगति न देखै जाइ । मारगु छोडि अमारगि पाइ ॥
सूवहु भूला आवै जाइ । अम्रित डारि लादि बिखु खाइ ॥
जिऊ वेस्वावे परै आखारा । कापरु पहिरि करहि सिंगारा ॥
पुरे ताल निहाले सास । वाके गले जमका है फास ॥
जाके मसतकि लिखिउ करमा । सो भजि परि है गुरकी सरना ॥
कहत नामदेऊ इहु बीचारु । इन बिधि संतहु ऊतरहु पारि ॥
216
सुलतानु पूछै सुनु बे नामा । देखऊ राम तुमारे कामा ॥
नामा सुलताने बाधिला । देखऊ तेरा हरि बीठुला ॥
बिसमिलि गऊ देहु जीवाइ । ना तरु गरदनि मारऊ ठांइ ॥
बादिसाह ऐसी किऊ होइ । बिसमिलि कीआ न जीवै कोइ ॥
मेरा किआ कछू न होइ । करिहै रामु होइ है सोइ ॥
बादिसाहु चढीउ अहंकारि । गज हसती दीनो चमकारि ॥
रुदनु करै नामे की माइ । छोडि राम की न भजहि खुदाइ ॥
न हुऊ तेरा पूंगडा न तू मेरी माइ । पिंडु पडै तऊ हरिगुन गाइ ॥
करै गजिंदु सुंड की चोट । नामा ऊबरै हरिकी ओट ॥
काजी मुलां करहि सलामु । इनि हिंदू मेरा मलिआ मानु ॥
बादिसाह बेनती सुनेहु । नामे सर भरि सोना लेहु ॥
मालु लेऊ तऊ दोजकि परऊ । दीनु छोडि दुनिआ कऊ मरऊ ॥
पावहु बेडी हाथहु ताल । नामा गावै गुन गोपाल ॥
गंग जमुन जऊ ऊलटी बहै । तऊ नामा हरि करता रहै ॥
सात घडी जब बीती सुणी । अजहु न आइऊ त्रिभवण धणी ॥
पाखंतण बाज बजाइला । गरुड चढे गोबिंद आइला ॥
अपने भगत परि की प्रतिपाल । गरुड चढे आए गोपाल ॥
कहहि त धरणि इकोडी करऊ । कहहि त लेकरि ऊपरि धरऊ ॥
कहहि त मुइ गऊ देऊ जीआइ । सभु कोई देखै पतिआइ ॥
नामा प्रणवै सेलम सेल । गऊ दुहाई बछरा मेलि ॥
दूधहि दुहि जब मटुकी भरी । ले बादिसाह के आगे धरी ॥
बादिसाहु महल महि जाइ । अऊघट कीं घट लागी आइ ॥
काजी मुलां बिनती फुरमाइ । बखसी हिंदू मै तेरी गाइ ॥
नामा कहै सुनहु बादिसाह । इहु पतिआ मुझै दिखाइ ॥
इस पतिआ का इहै परवानु । साचि सील चालहु सुलितान ॥
नामदेऊ सभ रहिआ समाइ । मिलि हिंदू सभ नामे पहि जाइ ॥
नामे की कीरति रही संसारि । भगति जना ले उधरिआ पारि ॥
सगल कलेस निंदक भइआ खेदु । नामें नाराइन नाहीं भेदु ॥
217
जऊ गुरदेउ त मिलै मुरारि । जऊ गुरदेउ त ऊतरै पारि ॥
जऊ गुरदेउ त वैकुंठ तरै । जऊ गुरदेउ त जीवत भरै ॥
सति सति सति सति सतिगुर देव । झूठु झूठु झूठु झूठु आन सभ सेव ॥
जऊ गुरदेउ त नामु द्रिडावै । जऊ गुरदेउ त दह दिस धावै ॥
जऊ गुरदेउ पंच ते दूरि । जऊ गुरदेउ न मारिबे झूरि ॥
जऊ गूरदेउ त अम्रित बानीं । जऊ गुरदेउ त अकथ कहानीं ॥
जऊ गूरदेउ त अम्रित देह । जऊ गुरदेउ नाम जपी लेहि ॥
जऊ गूरदेउ भवन त्रै सूझै । जऊ गुरदेउ ऊच पद बूझै ॥
जऊ गूरदेउ त सीसु आकासि । जऊ गूरदेउ सदा सावासि ॥
जऊ गूरदेउ सदा बैरागी । जऊ गूरदेउ पर निंदा तिआगी ॥
जऊ गूरदेउ बुरा भला एक । जऊ गूरदेउ लिलाट हि लेख ॥
जऊ गूरदेउ कंधु नही हिरै । जऊ गूरदेउ देहुरा फिरै ॥
जऊ गूरदेउ त छापरि छाईं । जऊ गूरदेउ सिहज निकसाई ॥
जऊ गूरदेउ त अठसठि नाइआ । जऊ गूरदेउ तनि चक्र लगाइआ ॥
जऊ गूरदेउ त दुआदस सेवा । जऊ गूरदेउ सभै बिखु मेवा ॥
जऊ गूरदेउ त संसा टूटै । जऊ गूरदेउ भऊजल तरै ।
जऊ गूरदेउ त जनमि न मरै ॥
जऊ गूरदेउ अठदस बिऊहार । जऊ गूरदेउ अठारह भार ॥
बिनु गुरदेउ अवर नहीं जाई । नामदेउ गुरकी सरणाई ॥
218
साहिबु संकटवै सेवकु भजै । चिरंकाल न जीवै दोऊ कुल लजै ॥
तेरी भगति न छोडऊ भाजै लोगु हसै । चरन-कमल मेरे हीअरे बसै ॥ रहाऊ ॥
जैसे अपने धनहि प्राना मरतु भांडै । तैसे संत जनां रामनामु न छांडै ॥
गंगा गइआ गोदावरी संसारके कामा । नाराइणु सुप्रसंन होइ त सेवकु नामा ॥
219
सहज अवलि घुंडी मणी गाडी चालती । पीछै तिनका लैकरि हांकती ॥
जैसे धनकत ध्रुठिटि हांकती । सरि धोवन चाली लाडुली ॥
धोबी धोवै बिरह बिराता । हरिचरन मेरा मनु राता ॥
भणति नामदेउ रमि रहिआ । अपने भगतपर करि दइआ ॥
220
दास अनिंन मेरो निज रुप ।
दरसन निमख ताप त्रयी मोचन परसत मुकति करत ग्रिह कूप ॥
मेरी बांधी भगतु छडावै बांधै भगतु न छूटै मोहि ।
एक समै मोकऊ गहि बांधै तऊ फुनि मो पै जबाबु न होइ ॥
मै गुन बंध सगल का जीवनि मेरी जीवनि मेरे दास ।
नामदेव जाके जीअ ऐसी तैसे ताकै प्रेम प्रगास ॥
221
अकुल पुरुख इकु चलितु उपाइआ । घटिघटि अंतरि ब्रहमु लुकाइआ ॥
जीअ की जोति न जाने कोई । तै मै किआ सु मालूमु होई ॥
जिऊ प्रगासिआ माटी कुंभऊ । आपही करता बीठलु देऊ ॥
जीअ का बंधनु करम बिआपै । जो किछु किआ सो आपै आपै ॥
प्रणवति नामदेऊ इहु जीऊ बितवै सु लहै । अमरु होइ सद आकुल रहै ॥
केवल सर्बगी में प्राप्त होनेवाले पद
222
येक बीठला सरणैं जा रे । जनमें बांधि काइ दौडा रे ॥टेक॥
तीरथैं तीरथैं काही डारे । लटक्यौं डोथा तूंबा रे ॥1॥
फोका दइया तुलसी बाहा रे । घूसरि षायद जोडा रे ॥2॥
नामदेव भणैं तू देव पहा रे । केसौ भगता चरिणीयां रे ॥3॥
223
पद नृषत किन जाइ रे दिना । हमप छिपानौ रे मना ॥टेक॥
जै तूं दरस्य करस्य घाई । तौ तूं निमससि ठाई कौंठाई रे मना ॥1॥
घट भरिलै उदीक चढोई । ऐसे तूं निहचल होई रे मना ॥2॥
नामा भणै सुष सुरगै नाहीं । सो सुष संतनि माही रे मना ॥3॥
224
कुनौ कृपा छल होइ सूं आवरी ।
बिघन व्याधी तेथै काल काई करी ॥टेक॥
एक बहबाला महापुरी बल सीया भीतरी ।
तहाँ जीवल हूँता तारु, तेन्है धरीला निजकरी ॥1॥
ऐक उदय सभूतिला तास दीया सनमुष भेटीला ।
नीधनिया धौरी सुधनवंत कैला ॥2॥
हे हरे दीपावली गुणी रेषिला ।
सुटत सुनौं श्रपै पारधी डंकिला ॥3॥
गाझचै पांणधी घडपाविंला ।
तहाम जीवल हूं तासीहूं । तेणें बाधनि रदाडिला ॥4॥
ऐसे अच्यत्र चरयूंत्र नटकलेवा देवा ।
बिष्नदास नामा बीनवै ह केसवा ॥5॥
अन्य स्त्रोतों से प्राप्त पद
225
भाई रे इन नयननि हरि पेषो ॥
हरी की भक्ति साधु की संगति सोई दिन धनि लेख्यो ।
चरन सोई जो नचत प्रेम सो, कर जो करै नित पूजा ॥
सीस सोई जो नवै साधु को, रसना और न दूजा ।
यह संसार हाट कौ लेखा, सब कोउ बनीजहिं आया ।
जिन जस लादा तिन तस पाया, मूरख मूल गवाया ॥
आतम राम देह धरि आयो, तामै हरि कौ देखौ ।
कहत नामदेव बलि बलि जैहो, हरि मनि और न लेखौ ॥
226
रुखडी न खाइयो स्वामी रुखडी न खाइयो ।
हाथ हमारे घिरत कटोरी, अपनी बांटा ले जाइयो ॥
दौडे दौडे जात स्वामी रोटणियां मुख मांहि ।
हम तौ दौंडे पहुँच न साकै, मेल लेहु गोसाइं ॥
घट घट वासी सर्व निवाई, पलमें भेष बनाया ।
कूकर ते ठाकूर भये प्रगटे नामदेव दरसन पाया ॥
227
अस मन लाव राम रसना । तेरो बहुरी न होय जरा मरना ॥1॥
जैसे मृगा नाद लव लावै । बान लगे वहि ध्यान लगावै ॥2॥
जैसे कीट भृङ मन दीन्ह । आपु सरीखे वा को कीन्ह ॥3॥
नामदेव भनै दासन दास । अब न तजौं हरि चरन निवास ॥4॥
228
मोर पिया बिलम्यो परदेस, होरी मैं का सौं खेलौं ।
घरी पहर मोहिं कल न परतु है, कहत न कोउ उपदेस ॥1॥
झरयो पात बन फूलन लाग्यो, मधुकर करत गुंजार ।
हाहा करौं कंथ घर नाहीं, के मोरी सुनै पुकार ॥2॥
जा दिन तें पिय गवन कियो है, सिंदुरा न पहिरौं मंग ।
पान फुलेल सबै सुख त्याग्यो, त्याग्यो, तेल न लावों अंग ॥3॥
निसु बासर मोहिं नींद न आवै, नैन रहे भरपूर ।
अति दारुन मोहिं सवति सतावै, पिय मारग बडि दूर ॥4॥
दामिनि दमकि घटा घहरानी, बिरह उठै घनघोर ।
चित चातृक है दादुर बोलै, वहि बन बोलत मोर ॥5॥
प्रीतम को पतियां लिखि भेजौं, प्रेम प्रीति मसि लाय ।
बेगि मिलो जन नामदेव को, जनम अकारथ जाय ॥6॥
1 अंतकाळीं मी परदेशी । ऐसें जाणोनि मानसीं । म्हणोनियां ह्रषिकेशी । शरण मी तुज आलों ॥१॥ नवमास गर्भवासीं । कष्ट जाले त्या मातेसी । ते निष्ठुर जाली कैसी । अंतीं दूर राहिली ॥२॥ जीवीं बाळाची आवड । मुखीं घालूऊनि करी कोड । जेव्हां लागली येमवोढ । तेव्हां दुरी राहिली ॥३॥ बहिणी बंधूचा कळवळा । तें तूं जाणसी रे दयाळा । जेव्हां लागली यमशृंखळा । तेव्हां दुरी राहिली ॥४॥ कन्या पुत्रादिक बाळें । हे तंव स्नेहाचीं स्नेहाळें । तुझ्या दर्शनाहुन व्याकुळ । अंतीं दूर राहिलीं ॥५॥ देहगृहाची कामिनी । ते तंव राहिली भवनीं । मी जळतसें स्मशानीं । अग्निसवें एकला ॥६॥ मित्र आले गोत्रज आले । तेहि स्मशानीं परतले । शेवटीं टाकोनियां गेले । मज परता येमजाल ॥७॥ ऐसा जाणोनि निर्धार । मन मज आला गहिंवर । तंव दाहीं दिशा अंधःकार । मग मज कांहीं न सुचे ॥८॥ ऐसें जाणोनियां पाही । मनुष्य जन्म मागुता नाहीं । नामा म्हणे तुझे पायीं । ठाव देई विठोबा ॥९॥
2 अगे तूं माउली संतांची साउली । आठवितां घाली प्रेमपान्हा ॥१॥ प्रेमपान्हा पाजी अगे माझे आई । विठाई गे मायी वोरसोनी ॥२॥ येतों काकुळती प्रेम पान्ह्यासाठीं । उभा तो धुर्जटी मागें पुढें ॥३॥ नामा म्हणे जीवें करीन लिंबलोण । ओवाळिन चरण विटेसहित ॥४॥
3 अग्निमाजिं पडे बाळू । माता धांवे कनवाळू ॥१॥ तैसा धांवे माझिया काजा । अंकिला मी दास तुझा ॥२॥ सवेंचि झेपावें पक्षिणी । पिलीं पडतांचि धरणीं ॥३॥ भुकेलें वत्स रावें । धेनु हुंबरत धांवे ॥४॥ वणवा लागलासे वनीं । पाडस चिंतित हरिणी ॥५॥ नामा म्हणे मेघा जैसा । विनवितो चातक तैसा ॥६॥
4 अज्ञान बालक कोमाईलें झणीं । जाणे ते जननी तानभूक ॥१॥ तैसा मजलागीं होउनि कृपाळ । करी गा संभाळ अनाथाचा ॥२॥ वत्सालागीं धेनु येतसे वोरसे । पान्हा स्तनीं कैसे वोसंडती ॥३॥ नामा म्हणे तुज हें न साहे उपमा । मी कुडी तूं आत्मा केशिराजा ॥४॥
5 अठ्ठाविस युगें उभा विटेवरी । मुद्रा अगोचरीं लावूनियां ॥१॥ ध्यान विसर्जन केधवां करिसी । नेणवे कोणासी ब्रह्मादिकां ॥२॥ पहातां तुजकडे माझें मीपण उडे । भेदाचें सांकडें हारपलें ॥३॥ तुजपाशीं असतां मुकिजे जीवित्वा । ठकले तत्त्वतां नेणों किती ॥४॥ नामा म्हणे स्वामी कृपादृष्टि पाहें । मन पायीं राहे ऐसें कीजे ॥५॥
6 अनंता जन्मीचें चुकवीं सांकडें । काय मी बापुडें वानुं कैसें ॥१॥ सगुन गुणाची वोललिसे मूर्ति । राहो माझे चित्तीं निरंतर ॥२॥ माझा मीच जालों सकळ व्यापारी । संसारा बाहेरी काढी कोण ॥३॥ नामा म्हणे मज नको गोवूं आशा । पावन परेशा केशिराजा ॥४॥
7 अनाथ अनाथ म्हणती मातें । अनाथनाथ म्हणती तूतें ॥१॥ आपुलें ब्रीद साच करी । येक वेळा भेटी दे गा मुरारी ॥२॥ पतित पतित म्हणती मातें । पतितपावन म्हणती तूतें ॥३॥ नामा म्हणे ऐकें सुजान । नाइकसि तरि लाज कवणा ॥४॥
8 अनाथाचा नाथ दीनाचा दयाळ । भक्तांचा कृपाळ पांडुरंग ॥१॥ ये गा तूं विठ्ठला माझिया माहेरा । कृपेच्या सागरा पांडुरंगा ॥२॥ वर्णिती पुराणें न करीं लाजिरवाणें । बोलती वचनें सनकादिक ॥३॥ कृपेचा सागरू कैवल्यउदारू । रखुमाईचा वरू पांडुरंग ॥४॥ पुंडलिकाचे भेटी अससी वाळवंटीं । हात ठेवुनि कटीं विटेवरी ॥५॥ भक्तिलागीम कैसा उभा असे तिष्ठत । असे वाट पहात भीमातीरीं ॥६॥ येऊनी जन्मासी पाहावी पंढरी । तेणें भवसागरीं तरसील ॥७॥ नामा म्हणे मज हरीचा विश्वास । जालों असे दास जन्मोजन्मीं ॥८॥
9 अनाथाचा नाथ भक्तांचा कैवारी । पुराणीं हे थोरी ऐकियली ॥१॥ ऐकोनियां कीर्ति आलों तुजपाशीं । निवारी दुःखासी केशिराजा ॥२॥ त्रितापें तापलें दुःखें आहाळलों । कासाविस जालों दायासिंधू ॥३॥ तुजवीण आतां कोणातें मी सांगूं । तोडि हा उद्वेगु नारारणा ॥४॥ नामा म्हणे आतां नको पाहूं अंत । उद्धरीं त्वरित पांडुरंगा ॥५॥
10 अनाथासी साह्म होसी नारायणा । करुणावचना बोलविसी ॥१॥ पांडुरंगा कृपा करीं मजवरी । पामर उद्धरीं पाहतांची ॥२॥ गणिकें सत्वर मोक्षपद देसी । उपमन्यु बाळासी क्षीरसिंधु ॥३॥ नामा म्हणे याति विचारसी । कण्य घरीं खासी विदुराच्या ॥४॥
11 अपत्याचें हित किजे त्या जनकें । जरी वेडें मुकें जालें देख ॥१॥ तैसें मी पोसणें तुझें जिवलग । अंतरींची सांग खूण कांहीं ॥२॥ राखीन मी नांव तुझें सर्वभावें । चित्त वित्त बळी देईन पायीं ॥३॥ जरी दैवहीन म्हणसी मजला । तरी लाज कवणाला म्हणे नामा ॥४॥
12 अपराधाच्या कोडी हीच माझी जोडी । पावनत्व प्रौढी नाम तुझें ॥१॥ द्रौपदी संकटीं वस्त्रें पुरविलीं । धांवा त्वां घेतली गजेद्रासी ॥२॥ उपमन्यालागीं आळी पुराविली । अढळपदीं दिधली वस्ती ध्रुवा ॥३॥ नामा म्हणे करा करुणा केशवा । तूं माझा विसावा पांडुरंगा ॥४॥
13 अपराधाच्या कोडी हेचि माझी जोडी । पतितपावन प्रौढी तुझी देवा ॥१॥ माझिया निदैवें ऐसेंचि घडलें । तूं तंव आपुलें न संडिसी ॥२॥ सहस्त्र अपराध घालीं माझें पोटीं । तारीं जगजेठी नामा म्हणे ॥३॥
14 अमृताहुनि गोड नाम तुझें देवा । मन माझें केशवा कां वा नेघे ॥१॥ सांग पंढरिराया काय करूं यासी । कां रूप ध्यानासि न ये तुझें ॥२॥ कीर्तनीं बैसतां निद्रें नागविलें । मन हें भुललें विषयसुखा ॥३॥ हरिदास गर्जती हरिनामाच्या कीर्ति । न ये माझ्या चित्तीं नामा म्हणे ॥४॥
15 अवघाचि संसार करीन सुखाचा । जरी जाला दुःखाचा दुर्धर हा ॥१॥ विठोबाचें नाम गाईन मनोभावें । चित्त तेणें नांवें सुख पावे ॥२॥ इंद्रियांचें कोड सर्वस्वें पुरती । मनाचे मावळती मनोधर्म ॥३॥ श्रवणीं श्रवणा नामाचा प्रवंधा । नाइकें स्तुतिनिंदा दुर्जनाची ॥४॥ कुंडलें मंडित श्रीमुख निर्मळ । पाहतां हे डोळे निवती माझे ॥५॥ विटेसहित चरण धरीन मस्तकीं । तेणें तनु सुखी होईल माझी ॥६॥ संतसमागमें नाचेन रंगणीं । तेणें होईल धुणी त्रिविध तापा ॥७॥ नामा म्हणे सर्व सुखाचा सोईरा । न विसंवे दातारा क्षणभरी ॥८॥
16 असोनि न दिसे लौकिक वेव्हरीं । ऐसा तूं अंतरीं लपवीं मज ॥१॥ परि तुझे पायीं माझें अनुसंधान । वरी प्रेमाजीवन देई देवा ॥२॥ मनाचिया वृत्ति आड तूं राहोनि । झेंपावती झणीं कामक्रोध ॥३॥ नामा म्हणे ऐसें पाळिसी तूं मातें । मी जीवें तूतें न विसंवें ॥४॥
17 आतां माझी चिंता तुज नारायणा । रुक्मिणीरमणा वासुदेवा ॥१॥ द्रौपदी संकटीं वस्त्रें पुरविलीं । धांव त्वां घेतली गजेंद्रासी ॥२॥ उपमन्या आळी तुवां पुरविली । अढळपदीं दिल्ही वस्ति धरुवा ॥३॥ नामा म्हणे करा करुणा केशवा । तूं माझा विसावा पांडूरंगा ॥४॥
18 आतां होणार तें होवो पंढरीनाथा । न सोडी सर्वथा चरण तुझे ॥१॥ ह्रदयीं तुझें ध्यान वाचे जपें नाम । हाचि नित्यनेम सर्व माझा ॥२॥ आम्हीं तुझी देवा धरियेली कांस । न करी उदास पांडुरंगा ॥३॥ नामा म्हणे देवा भक्तजनवत्सला । क्षण जीवावेगळा न करी मज ॥४॥
19 आधींच मी लटिका वरी लटिकी तुझी माया । ऐसें हें कासया पाहसी देवा ॥१॥ जाणतां नेणतां नाम तुझें देवा । गाईन केशवा आवडीनें ॥२॥ विषयीं आसक्त भ्रांत माझें मन । कैसें तुझें भजन घडेल मज ॥३॥ नामा म्हणे आतां जाणसी तें करीं । पतितपावन हरि नाम तुझें ॥४॥
20 आपुले रूपीं मज लपवीं निरंतरीं । समाये भीतरीं आड राहे ॥१॥ परि तुज मज असावा संबादू । भ्रांति मायाबाधु करी ॥२॥ काम क्रोध लोभ दंभ मद मछर । हे वैरी अपार मारी माझे ॥३॥ नामा म्हणे आम्हीं जन्माजन्मांतरींचे । पोसणें घरींचे सदा तुझें ॥४॥
21 आम्हां सांपड्लें वर्म । करुं भागवतधर्म ॥१॥ अवतार हा भेटला । बोलूं चालूं हा विसरला ॥२॥ अरे हा भावाचाअ लंपट । सांडुनि आलासे बैकुंठ ॥३॥ संतसंगतीं साधावा । धरूनि ह्रदयीं बांधावा ॥४॥ नामा म्हणे केउता जाय । आमुचा गळा त्याचे पाय ॥५॥
22 आम्हांपासीं काय मागसी तूं देवा । नाहीं भक्तिभाव भांडवल ॥१॥ भांडवल गांठीं देखोनि साचारा । सुदाम्याची फार पाठ घेसी ॥२॥ घेसी सोडुनियां पोहे मुठीभरा । हिडसावल्या करा नामा म्हणे ॥३॥
23 आम्ही काय जाणो तुझा अंत पार । होसी तूं साचार निवारिता ॥१॥ बहु अपराधी जाण यातिहीन । पतितपावन पांडुरंगा ॥२॥ नामा म्हणे ऐसा पाताकी पामर । करिसी उद्धार साच ब्रीद ॥३॥
24 आम्ही काय जाणों तुझा अंतपार । होसी निरंतर निवारिता ॥१॥ बहु अपराधी जाणा यातिहीन । पतितपावना तुम्ही देवा ॥२॥ नामा म्हणे ऐसा पातकी पामर । करिसी उद्धारा साच ब्रीदें ॥३॥
25 आम्ही तुझे असों एकचि त्या बोधें । नित्य परमानंदें वोसंडित ॥१॥ विठ्ठलचि घ्यावा विठ्ठचि गावा । विठ्ठचि पहावा सर्वाभूतीं ॥२॥ या परतें सुख न दिसे सर्वथा । कल्पकोटि येतां गर्भवास ॥३॥ नामा म्हणे चित्तीं विठठलांचें रूप । संकल्प विकल्प मावळले ॥४॥
26 आम्ही शरणागत परि सर्वस्वें उदार । भक्तीचे सागर सत्वशील ॥१॥ काय वाचा मनें अर्थ संपत्ति धन । दिधलें तुजलागुन पांडुरंगा ॥२॥ आम्हां ऐसें चित्त तुम्हां कैचें देव । हा बडिवा केशवा न बोलावा ॥३॥ सत्वाचा सुभट बळि चक्रवर्तित । पहा केवढी ख्याति केली तेणें ॥४॥ त्रिभुवनीचें बैभव जोडिलें ज्या लागुनि । तें शरीर तुझ्या चरणीं समर्पियेलें ॥५॥ रावणा ऐसा बंधु सांडूनि सधर । ओळंगति परिवारा ब्रह्मादिकां ॥६॥ तें सांडोनि एकसरा आलासे धांवत । जाला शरणागत बिभीषण ॥७॥ हिरण्यकश्यपें तुझ्या वैर संबंधें । पाहे त्या प्रल्हादा गांजियेलें ॥८॥ अजगर कुंजर करितां विषपाना । परि तुझें स्मारण न संडीच ॥९॥ पति पुत्र स्नेह सांडोनि गोपिका । रासक्रीडे देखा भाळलिया ॥१०॥ एकीं तुझें ध्यान करितां त्यजिले प्राण । सांग ऐसें निर्वाण कवणें केलें ॥११॥ ऐसे मागें पुढें जाले असंख्यात । भक्तभागवत सखे माझे ॥१२॥ त्यांचिनि सरता झालासी त्रिभुवनीं । विचारी आपुल्या मनीं पांडुरंगे ॥१३॥ केलें उच्चारणें बोलतां लाजिरवाणें । हांसती पिसुणें संसारींची ॥१४॥ नामा म्हणे केशवा अहो विरोमणी । निकुरा जाला झणीं मायबापा ॥१५॥
27 आम्हीं शरणागतीं केलासी सरता । येर्हवीं अनंता कोण जाणे ॥१॥ वेदशास्त्र पुराणीं उबगोनि सांडिलासी । तो तूं आम्हीं धरिलासे ह्रदयकमळीं ॥२॥ चतुरा शिरोमणी अहो केशिराजा । अंगीकार तुझा केला आम्हीं ॥३॥ सहस्त्र नामें जरी जालासि संपन्न । तरी हेंहि भूषन आमुचेंचि ॥४॥ येर्हवीं त्या नामाची कवण जाणे सीमा । पाहें मेघश्यामा विचारोनि ॥५॥ होतासी क्षीरसागरीं अनाथाचे परी । लक्ष्मी तेथें करी चरणसेवा ॥६॥ तेहि तंव जाण आमुची जननी । तूं तियेवांचोनि शोभसी कैसा ॥७॥ तुज नाहींज नाम रूप जाति कूळ । अनादीचें मूळ म्हणती तुज ॥८॥ आम्ही भक्त तरी तूं भक्तवत्सल । ऐसा प्रगट बोल जगामाजीं ॥९॥ ऐसि आमुचेनि भोगिसी थोरीव । अमुचा जीवभाव तुझे पायीं ॥१०॥ नामा म्हणे केशवा जरि होसी जाणता । या बोला उचिता प्रेम देई ॥११॥
28 आम्हीं शरणागतीं सांडिली वासना । ते त्वां नारायणा अंगिकारिली ॥१॥ म्हणोनि प्रसन्न व्हावया आमुतें । वोसारल्या चित्तें चालविसी ॥२॥ अज्ञान बाळकु ठकविला धुरू । तैसा मी अधिरू नव्हे जाण ॥३॥ लंकापति केला तुवां बिभीषण । झालासी उत्तीर्ण वाचाऋणें ॥४॥ उपमन्यें घेतला दुधाचाचि छंद । तैसा बुद्धिभेद नव्हे जाण ॥५॥ नामा म्हणे तैसा नव्हे मी अज्ञा । माग तुज देईन शरीर अवघें ॥६॥
29 आशा तृष्णा व्याघ्र देखोनियां डोळा । जालेंसे व्याकुळ चित्त माझें ॥१॥ पावें गा विठोबा पावेंज गा विठोबा । पावें गा विठोबा मायबापा ॥२॥ तूं भक्तकैवारी कृपाळुवा हरि । येईं गा झडकरी देवराया ॥३॥ नामा म्हणे आन नाहीं तुजवांचोनि । जनक जननी केशिराजा ॥४॥
30 आशा मनिषा तृष्णा लागलीसे पाठीं । धांव जगजेठी स्वामी माझ्या ॥१॥ गेलासि केउता वाढिलें दुश्चिता । अगा कृपावंता स्वामी माझ्या ॥२॥ नामा म्हणे मज नाहीं कोण गत । तारिसी अनंत स्वामी माझ्या ॥३॥
31 आसनीं शयनीं आठवीं अनुदिनीं । नित्य समाधानीं रूप तुझें ॥१॥ काम धाम कांहीं नलगे माझ्या चित्तीं । न देखे विश्रांति तुजविण ॥२॥ तापत्रय ओणवा लागला चहूंकडे । न देखें उघडे तुजविण ॥३॥ तुजविण तें जिवलग दुजें कोण होईल । तें माझें निवारील उद्वेग हे ॥४॥ कृपेचा सागरू त्रिभुवनीं उदारू । न करी अव्हेरू अनाथाचा ॥५॥ नामा म्हणे केशवा आस माझी पुरवी । पाउलें दाखवी एक वेळां ॥६॥
32 आसनीं शयनीं भोजनीं गमनीं । तुझे पाय दोन्ही दावी मज ॥१॥ संसार कल्मष समूळ छेदिसी । दावीं अहर्निशीं पाय मज ॥२॥ हरी ध्यानीं मनीं भक्तां तूं परेशा । अनाथ कोंवसा गोंवळियां ॥३॥ नामा म्हणे नाम ऐकों सर्वोत्तमा । संसारींच्या श्रमा वारीं देवा ॥४॥
33 इलुसाचि प्रपंच परि हा लटिकाअ । तेणें तुज व्यापका झांकियलें ॥१॥ ऐसियाचा मज घालोनियां खेवा । स्वामिद्रोहि देवा करिसी मज ॥२॥ मेरुचिया गळा बांधोनि मशक । पाहसि कौतुक अनाथनाथा ॥३॥ नामा म्हणे देवा कळली तुझी माव । माझा मी उपाव करीन आतां ॥४॥
34 उडाली पक्षिणी गेली अंतराळीं । चित्त बाळाजवळी ठेवूनियां ॥१॥ तैसें माझें मन राहो कां ईश्वरीम । मग सुखें संसारीं असेना का ॥२॥ धेनु चरे वनीं वच्छ असे घरीं । चित्त वच्छावरी ठेवूनियां ॥४॥ विष्णुदास नामा विनवी परोपरी । हें प्रेम श्रीहरी द्यावें मज ॥५॥
35 उदार कृपाळ सांगशील जना । तरी कां रावणा मारियेलें ॥१॥ नित्यानित्य पूजा सिरकमळीं करी । तेणें तुझें हरी काय केलें ॥२॥ किती बडिवार सांगसील वायां । ठावा पंढरिराया आहेसी आम्हां ॥३॥ कर्णा ऐसा वीर झूंझार उदार । त्यासी त्वां जर्जर केलें बाणीं ॥४॥ पाडिलें भूमीसी न येचि करुणा । त्याचे नारायना पाडिले दांत ॥५॥ श्रिययाळ बापुडें सात्विक निर्वाणीं । खादलें कापोनी याचें पोर ॥६॥ ऐसा कठिण कोण होईल दुसरा । कांडियेलें शिरा उखळामाजीं ॥७॥ शिवी चक्रवर्ती करिताम यज्ञयाग । कापिलें त्याचें अंग ठायीं ठायीं ॥८॥ जाचोनियां प्राण घेतला तयाचा । काय सांगसी वाचा बडिवार ॥९॥ हरिश्चंद्राचें राज्य घेऊनियां सर्व । विकले त्याचे जीव डोंबाघरीं ॥१०॥ बहुतचि श्रम दिधलें तयासि । परी तो सत्वासि ढळेचिना ॥११॥ पाडिला विघड नळादमयंतीं । ऐसी कृपामूर्ति बुद्धि तुझी ॥१२॥ आणिक तुझी कीर्ति सांगावी ती किती । केली ते फजिती माउशीची ॥१३॥ मारियेला मामा सखा पुरुषोत्तमा । नामा म्हणे सीमा फार केली ॥१४॥
36 उदारांचा राणा म्हणविसी आपणां । सांग त्वां कवणां काय दिल्हें ॥१॥ उचिता उचित भजसी पंढरीनाथा । न बोलों सर्वथा वर्में तुझीं ॥२॥ वर्में तुझीं कांहीं बोलेन मी आतां । क्षमा पंढरीनाथा करी बापा ॥३॥ न घेतां न देसी आपुलेंहि कोण । प्रौढी नारायणा न बोलावी ॥४॥ बाळमित्र सुदामा विपत्तीं पिडला । तो भेटावया आला तुजलागीं ॥५॥ त्याचें मुष्टिपोहेसाठीं मन केलें आसट । मग दिलें उत्कृष्ट भाग्य तया ॥६॥ छळावया पांडव दुर्वास पातला । द्रौपदीनें केला धांवा तुझा ॥७॥ गेली वृंदावना केली प्रदक्षेना । आळविला कान्हा द्वारकेचा ॥८॥ आळवी पांचाळी येर बा वनमाळी । राख ये काळीं सत्व माझें ॥९॥ येवढिया आकांतीं घेऊनि भाजीपान । मग दिलें अन्न ऋषिलागीं ॥१०॥ बिभीषना दिधलि सुवर्णाची नगरी । हे कीर्ति तुझी हरि वाखाणिती ॥११॥ वैरियाचें घर भेदें त्वां घेतलें । त्याचें त्यासी दिधलें नवल काया ॥१२॥ धरुवा आणि प्रल्हाद अंबऋषि नारद । हरिश्चंद्र रुक्मांगद आदि करुनी ॥१३॥ त्याचें सेवाऋण घेऊनि अपार । मग त्या देशी वर अनिर्वाच्या ॥१४॥ एकाचि शरीरसंपत्ति आणि वित्त । एकाचें तें चित्त हिरोनि घेसी ॥१५॥ मग तया देशी आपुलें तूं पद । जगदानी हें ब्रीद मिरविसी ॥१६॥ माझें सर्वस्व घेई तुझें नको कांहीं । मनोरथाची नाहीं चाड मज ॥१७॥ नामा म्हणे केशवा जन्मजन्मांतरीं । ऋणी करिन हरी ऋणें सेवा ॥१८॥
37 ऐशा विचारें समाधान करीं । गोविंद श्रीहरी नारायन ॥१॥ सर्वकाळ ऐसी वदो ही वैखरी । आणि अंतरीं नाठवावें ॥२॥ आणिकासी गुज न बोले वदन । वदो नारायन सर्वकाळ ॥३॥ रामकृष्ण माझ्या शेषाचें स्तवन । शास्त्रेंहि पुराणें भाट ज्यांचीं ॥४॥ नामा म्हणे आतां ऐसें करी देवा । ह्रदयीं केशवा राहे माझ्या ॥५॥
38 ऐसी चाल नाहीं कोठें । नमस्कारा आधीं भेटे ॥१॥ मायबापा निर्विकारीं । सखा नांदतो पंढरीं ॥२॥ देव भक्तपण । नाहीं नाहीं त्यासी आण ॥३॥ नामा म्हणे आधीं भेटी । मग चरणां घालीन मिठी ॥४॥
39 ऐसें माझें मना येतें पंढरीनाथा । न सोडी सर्बथा चरण तुझे ॥१॥ यासि काय करूं सांगा जी गोपाळा । कां स्नेह लावियेला पूर्वींहुनी ॥२॥ ह्रदयीं चित्तवृत्ति मनेंसि मिळोनी । अवघीं तुझ्या चरणीं सुरवाडिलीं ॥३॥ नामा म्हणे केशवा धरिली तूझी सेवा । सुखा अनुभवा अनुभविलें ॥४॥
40 कटीं कर उभा ऐसा । पहा कैसा घरघेणा ॥१॥ माझा हिशेव करी हिशेव करी । हिशेब करी केशवा ॥२॥ चौर्याशीं लक्ष जन्म केली तुझी सेवा । माझें ठेवणें देईअ गा दिवा ॥३॥ नामा म्हणे मज खवळिसी वायां । पिसाळलों तरी झोंबेन तुझ्या पायां ॥४॥
41 कपटनाटका कल्लोळ करुणा । मजलागीं दीन होसी देवा ॥१॥ रात्रंदिवस मज ठेवुनि जवळ । घालसी कवळ मुखामाजीं ॥२॥ पेंद्या सुदाम्याचे करिसी कैवार । मजसी अंतर केलें आतां ॥३॥ नामा म्हणे आम्हीं करितों बोभाट । देऊं नको भेट पांडुरंगा ॥४॥
42 कलियुगीं जन मूर्ख शून्यवृत्ति । तारिसी श्रीपति नाम घेतां ॥१॥ परम पावना पवित्रा निर्मळा । भक्ताचा सांभाळ करीं देवा ॥२॥ देवा तूं दयाळा जिवलगा मूर्ति । पुराणें गर्जाती वेदशास्त्रें ॥३॥ नामा म्हणे आतां नको भागाभाग । सखा पांडुरंग स्वामी माझा ॥४॥
43 कल्पतरुतळीं बैसलिया । कल्पिलें फळ न पविजे ॥१॥ कामधेनु जरी दुभती । तरी उपावासीं कां मरावें ॥२॥ उगे असा उगे असा । होणार तें होय जाणार तें जाय ॥३॥ नामा म्हणे केशवा काय तुझी भीड । संता महंतां देखतां सांगेन तुझी खोड ॥४॥
44 कस्तुरीचा टिळा रेखिला कपाळीं । तेणें ते शोभली मूर्ति बरी ॥१॥ बरवा बरवा विठ्ठल गे बाई । वर्णावया साही शिनताती ॥२॥ श्रीवत्सलांच्छन वैजयंती गळां । नेसला पाटोळा तेजःपुंज ॥३॥ पाऊलें समान विटेवरी नीट । नामा म्हणे भेट घ्यावी त्याची ॥४॥
45 कां गा मोकलिलें माझिया विठ्ठला । धांवा तुझा केला मायबापा ॥१॥ त्रितापें तापलों बहुत पोळलों । चिखलीं पडिलों दीनानाथा ॥२॥ यालागीं तुजला भाकितों करुणा । धांवसी निर्वाणा पांडुरंगा ॥३॥ नामा म्हणे देवा अनाथाच्या नाथा । रुक्माईच्या कांता घाली उडी ॥४॥
46 कां हो मोकलिलें कवणा निरविलें । कठिण कैसें जालें चित्त तुझें ॥१॥ करुणाकल्लोळणी अमृत संजीवनी । चिंतल्या निर्वाणीं पावें वेगीं ॥२॥ अपराधी अनाथ जरी जालें अमंगळ । करावा सांभाळ लागे त्याचा ॥३॥ नामा म्हणे विठ्ठले आलों मी तुजपाशीं । केधवां भेटसी अनाथनाथा ॥४॥
47 कांसवीची पिलीं राहाती निराळीं । दृष्टि पान्हावली सुधामय ॥१॥ जैसा जावळूनि असेन मी दुरी । दृष्टि मजवरी असो द्यावी ॥२॥ तान्हें वत्स घरीं वनीं धेनू चरे । परि ती हुंबरे क्षणोक्षणा ॥३॥ नामा म्हणे सत्ता करिती निकत । भक्तांसी वैकुंठ पद देसी ॥४॥
48 काखे पान अंगणीं उभें उगें । भोजन मागें रामनाम ॥१॥ आणिक नाहीं मज चाड । रामनाम गोड जेऊं घाला ॥२॥ आनरस सेवितां मंद पडिलों । तुझेंचि नामेंम रुचीस आलों ॥३॥ इच्छाभोजनीं तूं एक दाता । नामा विनवी पंढरीनाथा ॥४॥
49 कागदीचें वित्त वेश्येसी दिधलें । तैसें आम्हां केलें नारायणें ॥१॥ जोडोनियां हस्त केलें मढयापाशीं । तैसें तूं मजशीं केलेंज देवा ॥२॥ कडू भोपळयाचा कोणता उपयोग । तैसें पांडुरंगें केलें जाण ॥३॥ नामा म्हणे ऐसें करूं नको देवा । समागम व्हावा पायांसवें ॥४॥
50 काय अपराध पाहसी कोणाचे । धांवे भावकांचे कामकाजीं ॥१॥ काय केशिराजा वाणूंज मी दुबळें । शरणागता लळे पुरविशी ॥२॥ पतितपावन ब्रीद चराचरीं । तेथें मी भिकारी कोणीकडे ॥३॥ नामा म्हणे तूंचि करिशी उद्धार । मज भ्याग्या पार नाहीं देवा ॥४॥
51 काय आम्हापाशीं आहे धन वित्त । दान तें उचित देऊं काय ॥१॥ देतां घेतां आम्हां पुरे पुरे जालें । संगतीं त्यागिलें भिवोनियां ॥२॥ काय वाणूं गुण भिकरपणाची । होसी पंढरीची नामनौका ॥३॥ नामा म्हणे पुढें दाखवी मारग । आम्ही तुज मागें येऊं सुखें ॥४॥
52 काय करुं आतां देवा विश्वंभरा । मजलागीं थारा नाहीं कोठें ॥१॥ उबगति सोयरीं धायरीं समस्त । कय करुं अंत पाह्सी माझा ॥२॥ तूंचि मातापिता गुरुबंधू होसी । जाऊं मी कोणासी शरण आतां ॥३॥ पायीं थारा मागे नाम्याची विनंति । चित्त द्या श्रीपति आतां वेगे ॥४॥
53 काय केलें मागें कोणाचें तूं बरें । शेवटीं वान्नरें संग करी तें ॥१॥ संगें करूनियां हिंडे रानोरान । दशरथा खूण चुकविसी ॥२॥ काय काय तरी सांगों तुज गुण । भिल्लिणीची आण सत्य मनीं ॥३॥ सत्य मानी वाळी वशिष्ठासहित । नामा म्हणे मात ही पुरातन ॥४॥
54 काय गुण दोष माझे विचारिसी । आहे मी तों राशी अपराधांची ॥१॥ अंगुष्ठापासोनी मस्तकापर्यंत । अखंड दुश्चित आचरलों ॥२॥ स्वप्नीं देवा तुझी नाहीं घडली भक्ति । पुससी विरक्ति कोठुनियां ॥३॥ तूंची माझा गुरु तूंची तारी स्वामी । सकळ अंतर्यामीं गाऊं तुज ॥४॥ नामा म्हणे माझें चुकवीं जन्ममरण । नको करूं शीण पांडुरंगा ॥५॥
55 काय गुणदोष आणितोसी मनाअ । नको नारायणा अभक्तची ॥१॥ शरीरसंबंधा सुचती अंतरें । काय म्यां पामरें आवरावें ॥२॥ नामा म्हणे मज नागविसी दातारा । नको बा अंतरा पाहों अंत ॥३॥
56 काय तुज देवा आलें थोरपण । दाविसी कृपण उणें पुरें ॥१॥ पुरे आतां सांगों नको बा श्रीहरी । गोकुळाभीतरीम खेळ मांडी ॥२॥ हलाहल शांत करी तत्क्षण । अमृतजीवन नाम तुझें ॥३॥ तुझें नाम सर्व सदा गोपाळासी । नामा म्हणे यासी काय जालें ॥४॥
57 काय थोरपणा मिरविसी व्यर्था । खोटेपणा स्वार्थ कळों ॥१॥ हिता अनहिता केले आपस्वार्थ । वचन यथार्थ बोल आतां ॥२॥ होसी कालिमाजीं कलिसारिखाची । भोळया भाविकाच्या भक्तिकाजा ॥३॥ नामा म्हणे माळ घातिली स्वहस्तें । करितोसि दंडवत निमित्यासी ॥४॥
58 काय पांडुरंगा सांग म्यां करावें । शरण कोणा जावें तुम्हांविण ॥१॥ वाट पाहतांना भागले लोचन । कठिणच मन केलें तुवां ॥२॥ ऐकिली म्यां कानीं कीर्ति तुझी देवा । उठलासे हेवा त्याचि गुणें ॥३॥ अनाथ अन्यायी काय मी करीन । दयावंत खूण सांगसी तूं ॥४॥ नामा म्हणे आस पूर्ण कीजे देवा । रूपडें दाखवा नेटें पाटें ॥५॥
59 काया कर पैं फुटों नेदी । टाळ विंडी वाहिन खांदीं ॥१॥ तूं बा माझा तूं बा माझा । तूं बा माझा केशिराजा ॥२॥ आळवणीच तूं बा वाचे । तेणें छंदें पेंधा नाचे ॥३॥ तूं बा माझा मी दास तुझा । विनवितो नामा केशिराजा ॥४॥
60 काया मनें वाचा नेणों भक्तिभाव । करिसी उपाव केशिराजा ॥१॥ थोरपणासाठीं मन घे हव्यासु । मी तो कासाविसु होय देवा ॥२॥ सर्वांभूतांमाजीं समत्वें दिससी । नामा म्हणे ऐसी दावी लीला ॥३॥
61 किती देवा तुला यावें काकुलती । काय या संचितीं लिहिलें असे ॥१॥ केली कांहो सांडी माझी ह्रषिकेशी । आम्ही कोणापाशीं तोंड वासूं ॥२॥ ब्रीदाचा तोडर गर्जे त्रिभुवनीं । तूंचि एक धनी त्रैलोक्याचा ॥३॥ समूळ घेतला पृथ्वीचा भारा । माझाचि जोजार काय तुला ॥४॥ नको पाहूं अंत पांडुरंगे आई । नामा विठोपायीं मिठी घाली ॥५॥
62 कीटकीतें भयें स्वयें भृंगी ध्यातां । तैसा तूं अनंता करी आतां ॥१॥ भजनें पाठविलें श्रीहरिरूपासी । नेतो वैकुंठासी नारायण ॥२॥ नाम नारायण अंतीं उद्धारक । नामा म्हणे देख भाक माझी ॥३॥
63 कृपणाचें धन असे भूमि आंत । तेथें जाय चित्त जेथें धन ॥१॥ ऐसी मज देवा लावावी हे सवे । हेंचि मज द्यावें पांडुरंगा ॥२॥ जेथें जेथें मन जाईल हें माझें । तेथें तेथें तुझें रूप भासे ॥३॥ नामा म्हणे मी सर्वांपरी अज्ञान । विनवी आस करून पांडुरंगा ॥४॥
64 कृपा करोनि त्वां मज प्रसना व्हावें । आणि म्यां मागावें बुद्धिज्ञान ॥१॥ ऐसी भुली मज न घालीं पांडुरंगा । बिघड संत्संगा न करीं मज ॥२॥ मोक्षासी साधन एका ते उपाधी । दाखवुनि बुद्धिभ्रंश केलें ॥३॥ एका पुत्र कलत्र राज्यचा संभ्रर्म । दावोनी दुर्गम भ्रम केला ॥४॥ नामा म्हणे तुझ्या प्रेमालागीं भक्ति । घेतली म्यां सुतीं जन्ममरणें ॥५॥
65 कृपावंत समर्थ म्हणूनि करी आर्त । येईन सांवरत पांडुरंगे ॥१॥ मज कां विसंबली विठ्ठल माउली । तनु तृषावली जीवनेंविण ॥२॥ तूं माझें जीवन नाम जनार्दन । ह्रदयीं भरी पूर्ण प्रेमरस ॥३॥ अमृताच्या करेंज कांसवीच्या भरें । कुरवाळीं त्वरें देह माझा ॥४॥ पूर्ण पान्हा देई निववीं ह्रदयीं । येई वो कान्हाई सांवळिये ॥५॥ नामा म्हणे पावे जीवा शीण न साहे । वेगीं लवलाहे पाजी पान्हा ॥६॥
66 केशवचरणीं मनें दिली बुडी । इंद्रियें बापुडीं धांवती पाठीं ॥१॥ संसार संभ्रम नको सुखलेश । भातुकें सरिसें पाठविसी ॥२॥ जन्मजन्मांतरीं जाणावें कवणें । नेणोनि भोगणें कवणें स्वामी ॥३॥ नामा म्हणे केशवे भक्तवत्सले । आम्हांसि वेगळे होऊं नका ॥४॥
67 कैसा पांडुरंगा करावा विचार । सांग बा विर्धार साक्षरूपा ॥१॥ काय आलें देवा कैचें थोरपण । आकारासि कोणी आणियलें ॥२॥ आणियलें आतां आपणासारिखें । गोपिकांसी रूपें दावी नाना ॥३॥ काय जीवेंभावें सकाळां संमता । सगुण अनंत म्हणे नामा ॥४॥
68 कोण होईल आत्मज्ञानी । जो बा राहे त्याच्या ध्यानीं ॥१॥ मज तो चरणांची आवडी । जन्मोजन्मीं मी न सोडी ॥२॥ होईल सिद्धीचा साधक । त्यासी देई स्वर्गसुखा ॥३॥ कोण होईल देहातीत । त्यासी करी संगरहित ॥४॥ नामा म्हणे जीवें साठीं । तुज मज जन्में पडिली गांठी ॥५॥
69 क्रिया कर्म धर्म तूंचि होसी माझे । राखेन मी तुझें द्वार देवा ॥१॥ मज पाळीसी तैसा पाळीं दीनानाथा । न सोडीं सर्वथा नाम तुझें ॥२॥ गाईन तुझें नाम ह्रदयीं धरुनि प्रेम । हाचि नित्य नेम सर्व माझा ॥३॥ नामा म्हणे केशवा सुखाच्या सागरा । तूं आम्हां सोईरा आदिअंतीं ॥४॥
70 गरुडावरी हरि बैसोनियां यावें । आम्हांसि रक्षावें दीनबंधू ॥१॥ अच्युता केशवा मुकुंदा मुरारी । येई लवकरी नारायणा ॥२॥ ऐकोनियां धांवा धांवला अनंत । उभा गरुडासहित मागें पुढें ॥३॥ वैजयंती माळा किरीट कुंडलें । नामयानें केलें लिंबलोण ॥४॥
71 गाणीं मी गाईलों भाटीं वाखाणिलों । जन्मोनियां जालों दास तुझा ॥१॥ आतां माझी लाज राखें नारायणा । झणीं केविलवाणा दिसों देसी ॥२॥ माये दुर्हाविलों मोहें मोकलिलों । सोये पैं चुकलों संसाराची ॥३॥ आपवर्गिं सांडिलों प्रवृत्ती दंडिलों । मीपना मुकलों मायबापा ॥५॥ नामा म्हणे तुझ्या चरणाची आवडी । लागली न सोडी चित्त माझें ॥६॥
72 गुण दोष माझे पाहों नको आतां । तारिसी अनंता मज आतां ॥१॥ अगाध महिमा काय वानूं हरी । गोकुळाभीतरीं गाई राखी ॥२॥ अंबऋषीसाठीं जन्म सोशियले । महत्त्वाचे केले हूड स्वयें ॥३॥ नामा म्हणे तुझे नामाचेनि बळ । प्रसादें केवळ लाधलों मी ॥४॥
73 घालूनि आसन साधिला पवन । घेतलें जीवन अंतरिक्षीं ॥१॥ पराहस्तें तृप्ति नव्हे जी दातारा । कृपा करुणा करुणा करा केशिराजा ॥२॥ जीवाचें जीवन तूं सर्वांचें कारण । धांव मजालागुन केशिराजा ॥३॥ अनाथाचा नाथ हेंज ब्रीद साचार । झणें माझा अव्हेर करिसी देवा ॥४॥ विष्णुदास नामा अंकियेला तुझा । विनवी केशिराजा प्रेमसुखें ॥५॥
74 चोरा ओढोनियां नेईजे जैं शुळीं । चालतां पाउलीं मृत्यु जैसा ॥१॥ तैसी परी मज जाली नारायणा । दिवसेंदिवस उणा होत असे ॥२॥ वृक्षाचिये मुळीं घालितां कुर्हाडी । वेंचे तैसी घडी आयुष्याची ॥३॥ नामा म्हणे हेंही लहरीचें जल । आटत सकळ भानुतेजें ॥४॥
75 छंदिस्त हें मन माझें पंढरिनाथा । न सोडीं सर्वथा पाय तुझे ॥१॥ यासि काय करूं सांगा जी विठ्ठला । स्नेह कां लाविला पूर्वीहूनि ॥२॥ कांसवीचीं पिलीं सोडोनि निराळीं । दृष्टि पान्हाइलिं अमृतमय ॥३॥ तैस मी जवळुनि असेन पैं दुरी । दृष्टि मजवरी असों द्यांवी ॥४॥ तान्हें वछ घरीं धेनु चरे वनीं । हंबरे क्षनक्षनां परतोनि ॥५॥ नामा म्हणे देवा सलगी करीं निकट । झणें मज विकुंठ्ह पद देसी ॥६॥
76 जगदानिया हें ब्रीद आहे जगीं । तें आजि मजलागीं काय जालें ॥१॥ मज पाहतां विसरू पडिला त्या नामाचा । कीं तुज आमुचा वीट आला ॥२॥ सुजाणाच्या राया परिसें केशिराजा । भक्ताचिया काजा लाजों नको ॥३॥ भक्तकाजकैवारी हें ब्रीद चराचरीं । तें ठेविलें क्षीरसागरीं लक्ष्मीपाशीं ॥४॥ मज पाहतां अभिलाष धरिला मानसीं । मग तूं हषिकेशी विसरलासी ॥५॥ दीनानाथ ऐसें नाम बहुतांसी वांटिलें । निर्गुण तें उरलें तुजपाशीं ॥६॥ म्हणोनि केशिराजा विसरलासी आम्हां । विनवितसे नामा विष्णुदासा ॥७॥
77 जगात्रजीवना अगा नारायणा । कां नये करुणा दासाची हे ॥१॥ अच्युता केशवा ये गा दीनानाथा । सर्वज्ञ समर्था कृपामूर्ति ॥२॥ चिद्घना चिद्रूपा विरंचीच्या बापा । करावी जी कृपा सर्वांभूतीं ॥३॥ तुझें म्हणविलें उपेक्षिसी जरी । नामा म्हणे हरी ब्रीद काय ॥४॥
78 जननिये जिवलगे येवो पांडुरंगे । शिणलों भेटि दे गे एक वेळां ॥१॥ त्राहे त्राहे त्राहे कृपादृष्टीं पाहे । येऊनियां राहे ह्रदयामाजीं ॥२॥ वासनेच्या संगें शिणलें माझें चित्त । विषयाचे आघात पडती वरी ॥३॥ नाहीं तुझी सेवा केली मनोधर्में । संसार संभ्रमें भ्रांत सदा ॥४॥ नाहीं तुझें नाम गाईलें आवडी । वाळली कुर्वंडी त्रिविधतापें ॥५॥ नामा म्हणे आई धांवें लवलाही । बुडतों चिंताडोहीं तारी मज ॥६॥
79 जन्ममरणाचें भय मज दाविसी । तें म्यां ह्रषिकेशी अंगिकारलें ॥१॥ आतां माझी चिंता तुज कां पंढरिनाथा । असो दे भलभलता भलतेंच ठायीं ॥२॥ सुखदुःख भोगणें माझें मी जाणें । तुज तंव भोगणें नलगे कांहीं ॥३॥ नामा म्हणे माझे हेचि मनोरथ । होईन शरणागत जन्मूजन्मीं ॥४॥
80 जन्मल्यापासूनि सोशिले प्रवास । वियोग पहावया जाले आतां ॥१॥ आतां एक करीं धावणिया धांवा । बुडतों केशवा काढीं मज ॥२॥ लाभ नव्हे हानि जाली भागाभाग । तूंचि पांडुरंग पुरविसी ॥३॥ नामा म्हणे ऐसें सर्वस्व रक्षिलें । पाषाण तारिले जळामाजीं ॥४॥
81 जाणसी तें करीं कृपाळुवा हरि । लाज सर्वांपरी आहे तुज ॥१॥ आरूष साबडें मी कांहीं नेणें वेडें । जन्मोनि सांदडें केलें तुज ॥२॥ बहुकीर्ति ऐकिली बहुतांचे मुखीं । बहुत केले सुखी शरणागत ॥३॥ नाहीं तुझी सेवा केली मनोभावें । लोभ दंभ गर्व भ्रांति सदा ॥४॥ नामा म्हणे मज होताती विपत्ति । सोडवीं श्रीपति येथोनियां ॥५॥
82 जाणीव शाहणीव बाहियेलें वोझें । तेणें चरण तुझे अंतरले ॥१॥ मज नेणतेंचि करी मज हरी । या लौकिकाबाहेरी काढी मज ॥२॥ तुझिया नामाचें मज लागो पिसें । देहीं देहन दिसे ऐसें करी ॥३॥ नामा म्हणे तुज जाणसी तरी येकचि जाण । रहित कारण कल्पनेचें ॥४॥
83 जिवलग कोण तुजविण होईल । जें माझें जाणेल जडभारी ॥१॥ अन्यायी अपराधी तुम्हां शरणागत । तुजविण हित कोण करी ॥२॥ नामा म्हणे आई धावें लवलाहीं । बुडतों या डोहीं दंभाचिया ॥३॥
84 जीव तूं प्राण तूं । आत्मा तूं गा विठ्ठला ॥१॥ जनक तूं जननी तूं । सोयरा तूं गग विठ्ठला ॥२॥ माझा गुरु तूं गुरुमंत्र तूं । सर्वस्व तूं माझें म्हणे नामा ॥३॥
85 जीवन्मुक्त केलें नामाचे गजरीं । सेवेसी अधिकारी विठोबाचे ॥१॥ काय उतराई होउं तुज देवा । उदारा केशवा मायवापा ॥२॥ अंतरीं देऊन प्रेमाचा जिव्हाळ । मुक्तीचा सोहळा भोगविसी ॥३॥ नामा म्हणे वेदां न येसी अनुमाना । वर्णितां पुराणां पडियेलें ठक ॥४॥
86 जीवन्मुक्त केलें नामाचे गजरीं । सेवेसी अधिकारी विठोबाचे ॥१॥ काये उतराई होऊं तुज देवा । उदारा केशवा मायबापा ॥२॥ अंतरीं देऊनि प्रेमाचा जिव्हाळा । मुक्तीचा सोहळा भोगविसी ॥३॥ नामा म्हणे वेदां न येसी अनुमाना । वर्णितां पुराणां पडलें टक ॥४॥
87 जें जें घडेल तें तें घडो । देह राहो अथवा पडो ॥१॥ परि मी न सोडी सर्वथा । तुझे पाय पंढरिनाथा ॥२॥ क्लेश होत नाना परी । मुखीं रामकृष्ण हरि ॥३॥ नामा म्हणे केशवातें । जें जें घडेल या देहातें ॥४॥
88 जेथें जेथें मन जाईल गा माझें । तेथें तेथें तुझें रूप असो ॥१॥ ऐसी मज संवई लावीं निरंतर । जन्मजन्मांतरीं केशिराजा ॥२॥ आपणांस काम जरूर कायसा । आतां पंढरीशा आटोपावें ॥३॥ नामा म्हणे नको पाहों माझी लाज । संसाराचें बीज मूळ खुडी ॥४॥
89 जैसा वृक्ष नेणे मान अपमान । तैसे ते सज्ज्न वर्तताती ॥१॥ येऊनियां पूजा प्राणि जे करिती । त्याचें सुख चित्तीं तया नाहीं ॥२॥ अथवा कोणी प्राणि येऊनि तोडिती । तयाअ न म्हणती छेदूं नका ॥३॥ निंदा स्तुति सम मानिती जे संत । पूर्णा धैर्यवन्त सिंधु ऐसे ॥४॥ नामा म्हणे त्यांची जरी होय भेटी । तरी जीव शिवा मिठी पडुनि जाय ॥५॥
90 ज्याचिया रे मनें देखियेलें तुज । त्याची लोकलाज मावळली ॥१॥ नाहीं तया क्रिया नाहीं तया कर्म । नाहीं वर्णाश्रम सुखदुःख ॥२॥ नाहीं देह स्फूर्ति जाती कुळ भेद । अखंडा आनंद ऐक्यतेचा ॥३॥ नामा म्हणे त्याचे चरणरज व्हावें । हेंचि भाग्य द्यावें केशिराजा ॥४॥
91 टाळ दिंडी हातीं उभा महाद्वारीं । नामा कीर्तन करी पंढरिये ॥१॥ आवडीचेनि सुखें वोसंडतु प्रेमें । गातों मनोधर्में हरिचे गुण ॥२॥ सांडोनि अभिमान नाचे धरोनि कान । अंतरीं ध्यान विठोवाचें ॥३॥ श्रीहरिची उत्तम जन्मकर्मनामें । घेतलीं त्या प्रेमें सुखरूपें ॥४॥ संतांची विश्रांति ज्ञानियांचें गुज । जें कां मुक्तिबीज मोक्षदानी ॥५॥ गोवर्धनधरे गोपीमनोहरे । भक्तकरुणाकरे पांडुरंगा ॥७॥ सकळा मंगळनिधी पातकभंजना । हरिजगज्जीवना परमानंदा ॥८॥ तूंचि एक सकळ आदिमध्यअंतीं । नित्य सुखसंपत्ति सज्जनांची ॥९॥ तूंचि माझा श्रोता तूंचि माझा वक्ता । तूंचि घेता देता प्रेमसुख ॥१०॥ विष्णुदास नामा विनवी पुरुषोत्तमा । सोडवी भवभ्रमां पासूनियां ॥११॥
92 डोळुले सिणले पाहता वाटुली । अवस्था दाटली ह्रदयामाजीं ॥१॥ तूं माझी जननी सखिये सांगातिणी । विठ्ठले धांवोनी देई क्षेम ॥२॥ तूं माझी पक्षिणी मी तुझें अंडज । क्षुधें पीडिलों मज विसरलीसी ॥३॥ तूं माझी कुरंगिणी मी तुझें पाडस । गुंतलें भवपाश सोडी माझा ॥४॥ मी तुझें वच्छ तूं माझी गाउली । वोरसोनि घाली प्रेमपान्हा ॥५॥ नामा म्हणे माझी पुरवावी आस । पाजी तान्हुल्यास प्रेमपान्हा ॥६॥
93 तत्त्व पुसावया गेलों वेदज्ञासी । तंव भरले त्यापासीं विधिनिषेध ॥१॥ तया समाधान नुपजे कदा काळीं । अहंकार बळि जाला तेथेम ॥२॥ म्हणोनि तुझें नाम धरिलें शुद्धभावें । उचित करावें पांडुरंगा ॥३॥ स्वरूप पुसावया गेलों शास्त्रज्ञासी । तंव भरले तयापाशीं भेदाभेदा ॥३॥ एकएकाचिया न मिळती मतासी । भ्रांत गर्वराशि भुलले सदा ॥५॥ पुराणिकासी पुसूं स्वरूपाची स्थिति । तंव त्यासी विश्रांति नाहीं कोठें ॥६॥ विषयीं ठेवुनि मन सांगति ब्रह्मज्ञान । तेणें समाधान नुपजे कदा ॥७॥ हरिदासासी पुसूं भक्तीच उपाव । तंव तयापाशीं भाव नाहीं कोठें ॥८॥ वाचेंनें सांगती नामाचा बडिवार । विषयीं पडीभर सदाकाळीं ॥९॥ ऐसें विचारितां बहुत भागलों । म्हणोनि शरण आलों पांडुरंगा ॥१०॥ भयभीत जालों संसार येरझारीं । शिणलों असें भारी तारीं मज ॥११॥ नामा म्हणे आतां हिंडतां कष्टलों । म्हणोनि शरण आलों पांडुरंगा ॥१२॥
94 तपें केलीं दाटोदाटीं । थोर पुण्याचिया साठीं ॥१॥ जन्मोजन्मींचा संकटीं । विठो तुझी जाली भेटी ॥२॥ दोन्हीं चरण लल्लाटीं । नामा म्हणे न सोडीं मिठी ॥३॥
95 तळियाचे पाळीं वृक्षावरी बैसुनी । कैसा चातक बोभाइतो रे । ताहाना फुटे परी उद्क नेघे । मेघाची वाट पाही रे ॥१॥ तैसा येईं बा कान्हया येईं बा कान्हया । जीवींच्या जीवना केशीराजा रे ॥धृ०॥ टाळघोळ कल्लोळ नानापरीचीं वाद्यें । वाजती वोजा रे । रानींच्या मयुरा नृत्या पैं नये । तुजविण मेघराजा रे ॥२॥ जळाविण जळचर पक्षीविण पिलियासी । तैसे जालें नामयासी रे । शंखचक्र गदा पद्म पितांबरधारी । अझुनि कां न पावशी रे ॥३॥
96 तान्हेलिया जाय उदका लागोनी । पारधी देखोनी मुरडे वेगीं ॥१॥ तैसे तुझे चरण विसरलों देवा । संसार केशवा देखोनियां ॥२॥ तैसी परि मज जहाली जाण देवा । नामा उभा केशवा विनवितो ॥३॥
97 तान्हेलों भुकेलों । तुझेनि नामें निवालों ॥१॥ तहान नेणें भूक नेणें । अखंड पारणें नामीं तुझ्या ॥२॥ अमुतलिंग केशव हा चित्तीं । तेणें नामया तृप्ति अखंडित ॥३॥
98 तापत्रयअग्निची जळतसे सगडी । आहाळोनि कोरडी जाली काया ॥१॥ केव्हां करुणाघना वोळसी अंबरीं । निवविसी नरहरी कृपादृष्टी ॥२॥ शोकमोहाचिया झळंबलों जाळीं । क्रोधाचे काजळीं पोळतसें ॥३॥ चिंतेचा वोणवा लागला चहूंकडां । प्राण होय व्याकुळा धांव देवा ॥४॥ धांवधांव करुनाघना तुजविण । नामा म्हणे प्राण जातो माझा ॥५॥
99 तुज गीतीं गातां न येसी पांडुरंगा । प्रेमेंचि दडूं गा पायांपाशीं ॥१॥ वांकडें तिकडें जैसें आलें तैसें । गावया उल्हास उगवला ॥२॥ त्याचि भरें तोंडा आलें तें बोलतों । नाम मुखीं घेतों अखंडित ॥३॥ तुझा म्हणवितों सांभाळावें देवा । नामया केशवा सर्वकाळ ॥४॥
100 तुज दिलें आतां यत्न करी याचा । जीवभाव वाचा काया मनें ॥१॥ भागलों दातारा शीण जाला भारी । आतां मज तारी अनाथासी ॥२॥ नेणताम सोसिली तयांची आटणी । नव्ह्तीं हीं कोणी कांहीं माझीं ॥३॥ वर्स नेणें दिशा हिंडती मोकाट । इंद्रिय सुसाट सर्व पृथ्वी ॥४॥ येरझार फेरा शिणलों सायासीं । आतां ह्रषिकेशी अंगिकारीं ॥५॥ नामा म्हणे मन इंद्रियाचें सोयी । धांव यासी कायी करुं आतां ॥६॥
101 तुज नेणों ग महेशा । म्हणुनि आलों गर्भवासा । अंध कूपीं पडिला जैसा । रात्रिदिवसा तो नेणों ॥१॥ तुझिया नामाची सांगडी । देई ते न खंडी । पावेन मी पैलथडी । त्या सांगडी आधारें ॥२॥ कामक्रोधादि जलचरीं । कासाविस जालों भारी । व्याकुळ होय चिंतालहरी । दुःखें भारी दाटलों ॥३॥ कल्पना वेली गुंडाळली पायीं । तेणें बुडें विषडोहीं । भंवतें पाहे तंव कोण्हे नाहीं । मग तुज ध्यायीं विश्वेशा ॥४॥ मज बांधुनी कर्मदोरी । घातलें संसारा दुर्धरीं । मायानदीचां महापुरीम । वाहावलों गा दातारा ॥५॥ ऐसा खेदखिन जालों बहुवस । न देखें विश्रांतीची वास । विनवी नामा विष्णुदास । गर्भवास पुरे आतां ॥६॥
102 तुज विकोनी घातली वोर । मज बोलतोसी ॥१॥ उच्छिष्ठ शिदोरी घेऊनिया करीं । भक्तांचा भिकारी तूंचि एक ॥२॥ चोर आणि शिंदळू चाळविलें गोविळें । अनंत मर्दिले दुष्टकाळ ॥३॥ नामा म्हणे केशवा सांगेन वर्म । ऐकतां न राहे संतांचें कर्म ॥४॥
103 तुजवांचोनि कांहीं गोड न वाटे जीवा । मज दिव्य केशवा पाय तुझे ॥१॥ लौकिकापासुनि कधीं सोडविसी । सांग ह्रषिकेशी उघडोनि ॥२॥ तुझे पाय दिव्य तुझे पाय दिव्य । तुझे पाय दिव्य रे दातारा ॥३॥ नामा म्हणे जिव्हे काढीन मी रवा । तुझे पाय केशवा दिव्य मज ॥४॥
104 तुजविण आम्हां कोण हो पोषिता । अहो जी कृपावंता पंढरिराया ॥१॥ न करीं विठ्ठला आतां लाजिरवाणें । मी तुझें पोसणें पांडुरंगा ॥२॥ काकुळती कोणा येऊं हो मी आतां । अनाथाचे नाथा विठ्ठला तूं ॥३॥ एक वेळ आतां पाहे मजकडे । नामा म्हणे वेडें रंक तुझें ॥४॥
105 तुझा दास मी तों राहिलों होवोनि । बोल चक्रपाणि पुरे आतां ॥१॥ जावो प्राण आतां न सोडीन संग । नव्हति वाउगे बोल माझे ॥२॥ श्रुति स्मृति वेद काव्यें ही पुराणें । तीं तुज भूषणें सुखें मानूं ॥३॥ काय हानि जाली सांगा मजपाशीं । उद्धारा जगासी नामा म्हणे ॥४॥
106 तुझा माझा देवा कां रे वैराकार । दुःखाचे डोंगर दाखविशी ॥१॥ बळें बांधोनियां देसी काळा हातीं । ऐसें काय चित्तीं आलें तुझ्या ॥२॥ आम्हीं देवा तुझी केली होती आशा । बरवें ह्रषिकेशा कळों आलें ॥३॥ नामा म्हणे देवा करा माझी कींव । नाहीं तरी जीव घ्यावा माझा ॥४॥
107 तुझा विष्णुदास म्हणतात जगीं । नाहीं माझें अंगीं प्रेमभाव ॥१॥ तेणें थोर लाज वाटे पंढरिराया । ये माझ्य ह्रदया एक वेळां ॥२॥ द्वैताद्वैत भाव आहे माझे ठायीं । अनुभव नाहीं स्वरूपाचा ॥३॥ देखावेखीं बैसें संतांचे संगतीं । नाहीं माझे चित्तीं ध्यान तुझें ॥४॥ साकारलें रूप तैं दिसे चर्मचक्षु । परी नाहीं वोळखी केवळ मनें ॥५॥ नामा म्हणे माझा उजळ करींज माथा । भेटी देउनी संतां निरवीं मज ॥६॥
108 तुझिया चरणाची न संडी मी आस । मग होत गर्भवास कोटिवरी ॥१॥ हेंचि मज द्यावें जन्मजन्मांतरीं । वाचे नरहरी नाम तुझें ॥२॥ कृपेचें पोसणें मी गा येक दिन । माझा अभिमान न संडावा ॥३॥ नामा म्हणे मज चाड नाहीं येरे । इतुकेंचि पुरे केशिराजा ॥४॥
109 तुझिया चरणाचें तुटतां अनुसंधाण । नेलें माझॆं मन षड्वर्गीं ॥१॥ धांव गा विठ्ठला सोडवीं आपुला दास । थोर कासावीस केलों बापा ॥२॥ कर्म कुळाचार क्रोध हा अनिवार । मदें निरंतर भ्रांत केलें ॥३॥ मछरें तुजसी दुरावलें देवा । लोभें केला गोवा गर्भवासी ॥४॥ दंभ रसातळीं जातसे घेऊनि । विश्वचक्षु होउनि पाहसी कैसा ॥५॥ नामा म्हणे मज तुझाचि भरंवसा । अनाथा कुंवसा होसी देवा ॥६॥
110 तुझिया चरणाचें तुटतां अनुसंधान । जाती माझे प्राण तत्क्षणीं ॥१॥ मग हें ब्रह्मज्ञान कोणापें सांगसी । विचारीं मानसीं केशिराजा ॥२॥ वदनीं तुझें नाम होतांचि खंडणा । शतखंडरसना होइल माझी ॥३॥ सांवळें सुंदर रूप तुझें दृष्टी । न देख्तां उन्मळती नेत्र माझे ॥४॥ तुज परतें साध्य आणिक साधन । साधक माझें मन होईल भ्रान्त ॥५॥ नामा म्हणे केशवा अनाथाचा नाथ । झणीं माझा अंत पाहसी देवा ॥६॥
111 तुझिया पायांचें प्रमाण हेंज माझें । चरण कमळ तुझे विसंबेना ॥१॥ संसाराच्या गोष्टी कीट जाले पोटीं । रामकृष्ण कंठीं माळ घाल ॥२॥ दुरोनियां देखें गरुडाचें वारिकें । गोपाळा सारिखें चतुर्भुज ॥३॥ नामा म्हणे विठो जन्मजन्मांतरीं । ऋणि करुनि करीं घेई मज ॥४॥
112 तुझिया संतांची अंगसंगति । ते शिणलिया विश्रांति संसारिया ॥१॥ श्रवण कीर्तन ध्यान घडे अनायासें । भेदभ्रम नासे तेचि क्षणीं ॥२॥ ऐसें भाग्य मज देसी कवणें काळीं । होईन पायधुळी वैष्णवांची ॥३॥ वदनीं तुझें नाम वसे निरंतर । राखीन त्यांचे द्वार थोर आशा ॥४॥ येतां जातां मज करिती सावधान । वदनीं कृष्ण कृष्ण म्हणविती ॥५॥ कामधेनु घरीं असे प्रसवली । ते विकावया नेली दैवहतें ॥६॥ पंथी पडिला पायां लागे चिंतामणी । पाषाण म्हणऊजि उपेक्षिला ॥७॥ तैसी परी मज जाहली अधमा । चुकलों तुझ्या वर्मा केशिराजा ॥८॥ नामा म्हणे थोर खंती वाटे जीवा । कृपा करूनि ठेवा कर माथां ॥९॥
113 तुझिये चरणीं असती दोनी भाव । तरीच हा जीव नरककुंडीं ॥१॥ बोल बोले एक मनीं असे आणिक । तरी तयासी देख दोनी बाप ॥२॥ तुजविणा सुख आणिकांचें मानी । तरी मज जननीज दोनी देवा ॥३॥ नामा म्हणे माझा सत्याचा साहाकारी । आस मी न करी आणिकांची ॥४॥
114 तुझे चरणीं चित्त रंगलें अनुरागें । बुह्जन्मीं वियोगें शिणलें होतें ॥१॥ आलाळलें पोळलें तापत्रयीं पीडिलें । तृष्णें विभांडिलें नानापरी ॥२॥ काम क्रोध लोभ दंभ मद मत्सर । इहीं निरंतर जाजावलें ॥३॥ बुडतिया अवचटें लाभे पैं सांगडी । ते जीवें न सोडी तैसें जालें ॥४॥ नामा म्हणे केशवा तूं कृपेचा सागर । झणीं माझा अव्हेर करिसी देवा ॥५॥
115 तुझे पायीं माझ्या मनें दिली बुडी । इंद्रियें बापुडीं वेडावलीं ॥१॥ आतां विषयसुख जाणावें कवणें । जाणोनि भोगणें कवणें स्वामी ॥२॥ देह सहज स्थिति राहिले निष्काम । ह्रदयीं सदा प्रेम ओसंडत ॥३॥ नामा म्हणे देवा भक्तजनवत्सला । क्षण जीवावेगळा न करींज मज ॥४॥
116 तुझें गुणनाम ऐकतां श्रवण नाराध्ये । अवलोकन करित नयन नाराध्ये । पूजन करितां कर नाराध्ये । ऐसी नाराणुक द्यावी कमळापती ॥धु०॥ नरहरि या नामें उदंड । केव्हांही नसावें रिकामें तोंड । खांदीं सतत करंडा वाहे । मस्तकीं अखंड निर्माल्य राहे । नेत्रीं आनंदजळ वाहे । यामध्यें देवा झणें कांहीं उणें होय ॥१॥ तुझेनि प्रसादें जठर पोसिलें । चरणोदकें तृष्णाहरण केलेंज । नामें नृत्य करितां मन हें निवालें । दंडवत घालितां श्रम हरले ॥२॥ गता शयनीं विसर न द्यावा श्रीरामा । यापरी निश्चित परमात्मा । तूं आलिया निवारिसी श्रमा । ऐसें केशिराजा विनवितो नामा ॥३॥
117 तुझें नाम म्हणतां सुलभ अनंता । दुर्लभ म्हणतां अंतकाळीं ॥१॥ तैसें तुवां मज केशवा करावें । ह्रदयीं भेदावें नाम तुझें ॥२॥ मुके पशु पक्षी वृक्ष आणि पाषाण । तया नारायणा गति कैसी ॥३॥ नामा म्हणे कैसें केशवा सांगणें । अज्ञानी ते नेणें कवणेंपरी ॥४॥
118 तुझें प्रेम माझे ह्रदाय आवडी । चरण मी न सोडी पांडुरंगा ॥१॥ कशासाठीं शीण थोडक्याकारणें । काय तुज उणें होय देवा ॥२॥ चंद्र चकोराचा पुरवी सोहळा । काय त्याच्या कळा न्यून होती ॥३॥ नामा म्हणे मज अनाथा सांभाळी । ह्रदयकमळीं स्थिर राहे ॥४॥
119 तुझें प्रेम माझ्या दाखवीं मनातें । मग तुझ्या चरणातें न विसंबें ॥१॥ कासया शिणविसी थोडिया कारणें । काय तुझें उणें होईल देवा ॥२॥ चातकाची तहान पुरवी जळधर । काय त्याची थोरी जाऊ पाहे ॥३॥ चंद्र चकोराचा पुरवी सोहोळा । काय त्याच्या कळा न्य़ून होती ॥४॥ कूर्मीं अवलोकीं आपुलिया बाळा । काय तिच्या डोळां दृष्टि नासे ॥५॥ नामा म्हणे देवा तुझाचि भरंवसा । अनाथा कुंवसा होसी तूंचि ॥६॥
120 तुझ्या पायीं चित्त रंगलेसें माझें । नाहीं केशिराजें ऐसें केलें ॥१॥ उठवितां काय होईल संतोष । मज अभाग्यास मोकलीलें ॥२॥ प्रपंच कावाडी न घाली मज दृढ । नको वाडें कोड झणीं देवा ॥३॥ नामा म्हणे भावें विनंति समस्तां । नको भंगू आतां प्रेमपान्हा ॥४॥
121 तुवां येथें यावेम कीं मज तेथें न्यावें । खंती माझ्या जीवें मांडियेली ॥१॥ माझें तुजविण येथें नाहीं कोणी । विचारावें मनीं पांडुरंगा ॥२॥ नामा म्हणे वेगीं यावें करुणाघना । जातो माझा प्राण तुजलागीं ॥३॥
122 तूं आकाश मी शामिका । तूं लिंग मी साळूंका । तूं समुद्र मी चंद्रिका । स्वयें दोन्ही ॥१॥ तूं वृंदावन मी चिरी । तूं तुळशी मी मंजिरी । तूं पांवा मी मोहरी । स्वयें दोन्ही ॥२॥ तूं चांद मी चांदणी । तूं नाग मी पद्मिणी । तूं कृष्ण मी रुक्मिणी । स्वयें दोन्ही ॥३॥ तूं नदी मी थडी । तूं तारूं मी सांगडी । तूं धनुष्य मी स्तविता । तूं शास्त्र मी गीता । तूं गंध मी अक्षता । स्वयें दोन्ही ॥५॥ नामा म्हणे पुरुषोत्तमा । स्वयें जडलों तुझ्या प्रेमा । मी कुडि तूं आत्मा । स्वयें दोन्ही ॥६॥
123 तूं माझी जननी काय गे साजणी । विठ्ठले धांवोनि भेट देई ॥१॥ डोळे माझे शिणले पाहतां वाटोली । अवस्था दाटली ह्रदयामाजीं ॥२॥ मी तुझें पाडस गुंतलों भवपाशीं । माते धीर तुजसी कैसा धरवला ॥३॥ तूं माझी पक्षिणी मी तुझें अंडज । क्षुधें पीडिलों मज विसरशी ॥४॥ तूं माझी माउली मी तुझें वोरस । पुढती पुढती वास पाहतसे ॥५॥ नामा म्हणे विठ्ठले आस पुरवीं माझी । ओरसे वेळां पाजीं प्रेमपान्हा ॥६॥
124 तूं माझी माउली मी बो तुझा तान्हा । पाजी प्रेमपान्हा पांडुरंगे ॥१॥ तूं माझी गाउली मी तुझें वासरूं । नको पान्हा चोरूं पांडुरंगे ॥२॥ तूं माझी हरिणी मी तुझें पाडस । तोडी भवपाश पांडुरंगे ॥३॥ तूं माझी पक्षिणी मी तुझें अंडज । चारा घाली मत्र पांडुरंगे ॥४॥ कासवीची दृष्टी सदा बाळावरी । तैसी दया करीं पांडुरंगे ॥५॥ नामा म्हणे विठो भक्तीच्या वल्लभा । मागें पुढें उभा सांभाळिसी ॥६॥
125 तूं माय माउली आस केली थोरी । वास निरंतरीं पंढरिये ॥१॥ स्वरूप दाखवी एक वेळां मज । धरूं नको लाज पांडुरंगा ॥२॥ नामा म्हणे तुज भक्तिचिये पैं पिसें । पुरविसी आस दुर्बळाची ॥३॥
126 तूं माय माउली म्हणोनि आस केली । विठ्ठलें पाहिली वास तुझी ॥१॥ मज कां मोकलिलें कवणा निरविलें । कठिण कैसें जालें ह्रदय तुझें ॥२॥ तुजविण जिवलग दुजें कोण होईल । तें माझें जाणेल जडभारी ॥३॥ मी दोन अपराधी तुझा सरणागत । तुजविण माझें हित करिल कोण ॥४॥ करुणा कल्लोळिणी अमृत संजीवनी । चिंतितो निर्वाणीं पाव वेगीं ॥५॥ नामा म्हणे तुजविण जालों परदेशी । केव्हां सांभाळिसी अनाथनाथे ॥६॥
127 त्यां चाळविलें अनंत सेवका । तोचि चाळा मज दाविसी निका ॥१॥ आदि अंतीं तुझ्या जाणितल्या खुणा । आतां काय करिसी पंढरीच्या राण्या ॥२॥ भलारे भला मज जालासि शहाणा । भेष पळविलें शास्त्रपुराणा ॥३॥ नामा म्हणे केशवा मज मारून दवडी । पुढती न धरावि सोय माझी पुढती फुडी ॥४॥
128 दंभें गर्वें मदें घेरलेंसे भारी । अनुस्रलों केसरी पंचानना ॥१॥ तूतें वेद नेणें तूतें शास्त्र नेणें । तुझें नाम नेणें गातूं असे ॥२॥ त्रिविद्या तूं पारु दोहींचा वृत्तांतु । सत्त्व राहे तीतूं जयालागीं ॥३॥ निर्गुण निराकार केशव उदार । नामा म्हणे पार उतरतील ॥४॥
129 दाविसी अनंता स्वरूपें अनेक । वाउगाचि शोक वाढविसी ॥१॥ आपुल्या मानसीं विचारूनि पाहे । सावधान होये तुझे पाई ॥२॥ नामा म्हणे नाम विर्वाणीचें बीज । मजसाठीं गुज दावियेलें ॥३॥
130 दास जाल्यावरी करिसी उदास । मनीं तें तुम्हांस आणी देवा ॥१॥ सोशिले प्रवास जन्मजन्मांतर । करिसी अव्हेर आम्हांलागीं ॥२॥ भार खांद्यावरी घेऊनी हिंडवी । होसी मजविशि पाठमोरा ॥३॥ श्रांत सावकाश गाती इतिहास । काय कासाविस होय तुम्हां ॥४॥ नामा म्हणे नको वाउगे उदीम । न सोडीं मी नाम केल्या कांहीं ॥५॥
131 दिवस गेले वायांविण । देवा तुज न रिघतां शरण । बाळत्व गेलें अज्ञानपण । तैं आठवण नव्हेचि ॥१॥ आला तारुण्याचा अवसरु । सवेंचि विषयाचा पडिभरु । कामक्रोध मदमछरु । अति व्यापारु तृष्णेचाअ ॥२॥ सवेंचि वृद्धपण पातलें । सकळ इंद्रियें सोडिलें । देहन करीच म्हणितलें । आंतर पडलें भक्तीसी ॥३॥ कांही हित नव्हेची माझें । दास्य न घडेचि तुझें । आयुष्य वेचिलें वीण काजे । धरणी वोझें पैं जालोम ॥४॥ पुनरपि जन्मा येईन मागुता । कोण जाणे कैसी अवच्छा । तुज मी ध्याईन अनंता । ऐसा लहाना कैंज होईन ॥५॥ तुझ्या नामाचा वोरस । तेणें चुके गर्भवास । नामा म्हणे विष्णुदास । देई सौरस आपुलें नामीं ॥६॥
132 दुरुनि आलों तुझिया भेटी । सांगावया जिवींच्या गोष्टी गा विठोबा ॥१॥ बोल गा बोल मजशी कांहीं । दृष्टी उघडुनी मजकडे पाही गा विठोबा ॥२॥ अरे तूं कृपाळु दीनाचा । महा उदार थोरा मनाचा गा विठोबा ॥३॥ भक्तें पुंडलिकें गोविलासी लोभें । प्रेमें प्रीतीच्या वालभें गा विठोबा ॥४॥ युगें अठ्ठावीस भरलीं । धणी अजुनी नाहीं पुरली गा विठोबा ॥५॥ प्राण होती माझे कासाविस । नामा म्हणे कां धरिलें उदास गा विठोबा ॥६॥
133 दुर्घट तें दुःख लागों नेदी भक्ता । त्याची तुज चिंता असे फार ॥१॥ आणि प्रकार घडे तो निकट । पैठणीं प्रकट रूप दावीं ॥२॥ जेथुनि सत्वर निघाले स्वदेशा । मुक्त केलें महिषा मार्गीं जाण ॥३॥ जाणती प्रेमळ कीर्तानासी नर । समाधि निरंतर म्हणे नामा ॥४॥
134 देव दगडाचा भक्त हा मावेचा । संदेह दोघांचा फिटे कैसा ॥१॥ ऐसे देव तेहि फोडिले तुरकीं । घातले उदकीं बोभातीना ॥२॥ ऐसिया देवासी वाहिले टिळे डोळे । भक्त बाळे नागविले ॥३॥ ऐसीहि दैवतें नको दावूं देवा । नामा म्हणे केशवा विनवितसे ॥४॥
135 देवा तुज आम्हीं दिधलें थोरपण । पाहें हें वचन शोधूनियां ॥१॥ नसतां पतित कोण पुसे तूतें । सांदीस पडतें नाम तुझेंज ॥२॥ पतित अमंगळ जालों तुज साह्य । खरें खोटें पाहे विचारोनी ॥३॥ रोग व्याधि पीडा जनांसी नसती । तरि कोण पुसती विद्यालागीं ॥४॥ कल्पनेची बाधा झडपे संसारीं । म्हणुनि पंचाक्षरी श्रेष्ठ जगीं ॥५॥ नामा म्हणे विठो दैवें आलों घरा । नको लावूं दारा आम्हालागीं ॥६॥
136 देवा तुझी अवज्ञा घडे । तयाचे दास होती वांकुडे । व्याधिविण देह पीडे । बुडे सागरीं चितेच्या ॥१॥ देवा तूं होसी उदासीन । तरी हांसती सकळैक जन ॥२॥ देवा तूं नाहींस जयाचेंज चित्तीं । सोनें धरिल्या होये माती । पीक न पिके तयाचे शेतीं । पेंवीं पाणी रिघतसे ॥३॥ सेवा करी जयाचे घरीं । तींचि होतीं पाठमोरीं । इष्टमित्र सज्जन सोयरीं । आप्त वैरी होऊनि ठाके ॥४॥ ठेवा ठेविला चुके आपण । मागतोचि मागे जाण । सत्यास घडे आपदास्तपण । बोले तितुकें लटिकेची ॥५॥ ऐसा अनुभव घडला मज । म्हणोनि बा शरण आलों तुज । नामा म्हणे केशिराज । कृपा करीं दातारा ॥६॥
137 देवा तूं प्रथम कर्म भोगिसी । सगरीं जळचरूं मछ जालासी । कमठे पाठीं न संडी कैसी । मर्में कावाविसी केलेंज तुज ॥१॥ अपवित्र नाम आधीं वराह । याहुनि थोर कूर्म कांसव । अर्ध सावज अर्ध मानव । हे भवभाव कर्मांचे ॥२॥ खुजेपणीं बळीसी पाताळीं घातलें । तेणें कर्में तयाचें द्वार रक्षिलें । पितयाचेम वचनीं मातेसी वधिलें । तें कर्में भोगविलें अंतरली सीसा । भालुका तीर्थीं वधियेलें अवचिता । नाम अच्युता तुज जाहलें ॥४॥ ऐसा कष्टी होउनि बोध्य राहिलासी । तूं कलंकी या लोका भारिसी । आपल्या दोषासाठीं आणिका दंडिसी । निष्कलंक होसी नारायणा ॥५॥ ऐसा तूं बहुतां दोषीं बांधलासी । पुढीलाचीं जन्में अवगतोसी । विष्णुदास नामा म्हणे ह्रषिकेशी । तुझी भीड कायसी स्वामियाहो ॥६॥
138 देवा निढळावरी हात दोन्ही । पाहें चक्रपाणि वाट तुझी ॥१॥ धांव गा धांव सख्या पांडुरंगा । जीवीं जिवलगा मायबापा ॥२॥ तुजविण ओस दिसती दाही दिशा । आणि धांव जगदीशा मजसाठीं ॥३॥ नामा म्हणे काय बैसलों निवांत । धांवतो अनंत भक्तांसाठीं ॥४॥
139 देवा माझें मन आणि तुझे चरण । एकत्र करोन दिधली गांठी ॥१॥ होणार तें हो गा सुखें पंढरीनाथा । कासया शिणतां वायांविण ॥२॥ माझिया अदृष्टीं ऐसेंचि पैं आहे । सेवावे तुझे पाय जन्मोजन्मीं ॥३॥ असतां निरंतर येणें अनुसंधानें । प्रारब्ध भोगणें गोड वाटे ॥४॥ ह्रदयीं तुझें रूप वदनीं तुझें नाम । बुद्धि हे निष्काम धरिली देवा ॥५॥ नामा म्हणे तुझीं पाउलें चिंतितां । जाली कृतकृत्यता जन्मोजन्मीं ॥६॥
140 देवा माझें मन करोनि स्वाधीन । निमोले स्वामीपण भोगिसीना ॥१॥ फुकाचा कामारा वोळगे निरंतर । न घाली तुज भार कल्पनेचा ॥२॥ तुज नलगे देणें मज नलगे मागणें । असेन अनुसंधानें चरणाचेनि ॥३॥ नामा म्हणे केशवा तूं सर्व जाणता । समयींच्या उचिता चुकों नको ॥४॥
141 देवा माझें मन ठेवीं तुझे चरणीं । घालीं माझें नयनीं रूप तुझें ॥१॥ मज या लोकांचा शीण असे मनांत । तुजचि चिंतित ह्रदयकमळीं ॥२॥ चंदनाच्या दृतीं वेधले तरूवर । सबाह्य अभ्यंतर काय जालें ॥३॥ सरिता सिंधुमाजी मिळोनि लपाली । सागरची जाली एकसरें ॥४॥ लवण जळाचें प्रसिद्धचि असे । ऐक्यभावें वसे न दिसे कांहीं ॥५॥ नामा म्हणे शरण आलों केशिराजा । ऐसा भावो माझा करी वेगीं ॥६॥
142 देशीं परदेशीं जालों तुजविण । माझें समाधान कोण करी ॥१॥ चातक चकोरापरी पाहे वास । तूं कां गे उदास पांडुरंगे ॥२॥ नामा म्हणे चित्त देईं माझ्या बोला । जीउ हा उरला तो निघों पाहे ॥३॥
143 देह जावो अथवा राहो । पांडुरंगीं दृढ भावो ॥१॥ चरण न सोडी सर्वथा । तुझी आण पंढरीनाथा ॥२॥ वदनीं तुझें मंगळनाम । अखंड सदोदित प्रेम ॥३॥ जैसा तैसा असेल भाग । तैसा तैसा घडेल योग ॥४॥ नामा म्हणे केशवराजा । केला पण चालवी माझा ॥५॥
144 देह जावो हेंचि घडी । पाय हरिचे न सोडी ॥१॥ क्लेश होत नानापरी । वाचे रामकृष्ण हरी ॥२॥ नाचूं वैष्णवांचे मेळीं । हांक विठ्ठल आरोळी ॥३॥ नामा म्हणे विठोबासी । जें तें घडो या देहासी ॥४॥
145 धरोनि हस्तक बैससी एकांतीं । भक्तासी श्रीपती सर्वकाळ ॥१॥ दाखवीं चरण दाखवीं चरण । दाखवीं चरण धांवे नेटें ॥२॥ सर्व आचरण दाविसी प्रकार । कल्पना अंधार निमित्याचा ॥३॥ नामा म्हणे होसी चतुर आपण । आमुचें निर्वान पाहूं नको ॥४॥
146 धांउनियां मिठी घालीन संतचरणीं । सांगे वचनींचे गुज तुम्हां ॥१॥ विठोबाच्या गांवा यारे मनीं येकवेळां । फारा आहाळला जीव माझा ॥२॥ आनंदाचें जीवन पाहिन श्रीमुख । शोकमोहदुःख हरती माझे ॥३॥ विटेसहित चरण देईन आलिंगन । तेणें माझी तनु वोल्हावेल ॥४॥ तुम्ही माझे आवडते अंतरंग । माझे जिवलगा प्राणसखे ॥५॥ नामा म्हणे विठो कृपेची माउली । तेव्हां ते साउली करिल मजा ॥६॥
147 धांवुनि जाईन श्रीमुख पाहीन । इडापिडा घेईन विठोबाची ॥१॥ तया सुखा दृष्टि लागेल वो झणीं । मग मी साजणी काय करूं ॥२॥ म्हणोनि माझें चित्त व्यापिलें उद्वेगें । सिणलें मी उबगें जन्मोजन्मीं ॥३॥ धरोनियां घालीं जीवाचे अंतरीं । आंतोनि बाहेरी जाऊं नेदीं ॥४॥ वासना पापिणी करील पायरव । मग हा अनुभव कोठें पाहूं ॥५॥ वृत्तिसहित करीन मनाचें सांडणें । न विसंबें प्राणें म्हणे नामा ॥६॥
148 धेनु विये वनीं तीसि कैचि सुयणी । तरीं ते वत्स स्तनीं लावी कवण ॥१॥ भुजंगाचीं पिलीं उपजतांचि वेगळीं । त्यांसी डेखूं शिकविलें हो कोणी ॥२॥ सहज लक्ष्ण जयाचिये ठायीं । तो आपुलिये सोई धांवतसे ॥३॥ उपजतांचि फूल मोगर्यांच्या माथां । त्यासी परिमळता कोणे लावियेली ॥४॥ कडू दुध्याच्या आळयासी साखर दूध घातलें । ते अधिकचि कडुवाळें कवणें केलें ॥५॥ गाळिला तोडिला खंड विखंडी । ऊंन न संडी सोय गोडीसी ॥६॥ नामा म्हणे तैसें आहे गा श्रीहरी । साईचे व्यपारीं घेईन तूतें ॥७॥
149 न विचारितां बळि घातला पाताळीं । सवेंचि कणव उपजली तये वेळीं । द्वार न संडिसि कवणेकाळीं । ऐसी तुझी करणी दातारा ॥१॥ अगा केशवा सुजाणा । गार्हाणें सांगू कवणा । तुझिये नामें तुटे बंधना । देवकीनंदना वासुदेवा ॥२॥ वसुदेव बांदवडी । आपदा करोन एवढी । मग त्या कंसा केवीं धाडी । मोक्ष तया दिधला ॥३॥ सुदामा सांगातें जेवी । धान्य मागे गांवोगांवीं । आपदा करोनि बहू ही । मग त्यासी राज्य दिधलें ॥४॥ जोहरीं सुदलें पांडवां । सवेंची उपजली कणवा । अग्निपासोनी केशवा । रक्षियेलें तयांसी ॥५॥ सभा पिसुनाची दाटली । द्रौपदी वस्त्रें आसुडली । एवढी आपदा करविली । मग वस्त्रें पुरविलीं तियेतें ॥६॥ दैत्यें गांजियला प्रल्हाद । तुझ्या नामाचा घेतला छंद । एवढा करुनियां खेद । मग त्या दैत्या वध केला ॥७॥ विभीषना हाणितल्या लाथा । लंका दिली त्या उचिता । समर्थें केलें तें बरवें आतां । तूं रघुनाथा ऐकें पैं ॥८॥ आम्ही लाडके डिंगर । माझें बोलणें उद्धट फार । तूं तंव कृपेचा सागर । उतरी पार म्हणे नामा ॥९॥
150 नको गा मोकलूं दीना पंढरिनाथा । तुजविण आतां कोण पावे ॥१॥ अपराधाच्या पोटीं पाहूं नको कांहीं । ये गे विठाबाई झडकरी ॥२॥ माझ्या दोषासाठीं पाठमोरा होसी । पावन ब्रीदासी लागे बोल ॥३॥ नामा म्हणे जननी तूंचि चराचर । तारिले अपार जड जीव ॥४॥
151 नमन करीन द्वारकानायका । पांडव पालका देवराया ॥१॥ आतां मी गाईन गुण नाम कीर्ति । जेणें चारी मुक्ति दासी होती ॥२॥ साधक लोकांसी हेंचि पैं साधन । ब्रह्म सनातन वश होय ॥३॥ नामा म्हणे सर्व सारांचें हें सार । जेणें निरंतर निरंतर सुख वाटे ॥४॥
152 नलगे तुझी भुक्ति नलगे तुझी मुक्ति । मज आहे विश्रांति वेगळीच ॥१॥ माझें मज कळलें माझें मज कळलें । माझें मज कळलें प्रेमसुख ॥२॥ न करीं तुझें ध्यान नलगे ब्रह्मज्ञान । माझी आहे खूण वेगळीच ॥३॥ न करीं तुझी स्तुति न वाखाणीं कीर्ति । धरलसि ते युक्ति वेगळीच ॥४॥ नामा म्हणे नाम गाईन विर्विकल्प । येसी आपोआप गिंवसित ॥६॥
153 नव्हे माझें कांहीं नेणे तुजविण । दुजे वोझें घेऊनि जड बहु ॥१॥ रंग नानासूत्रिं अनेक पुतळे । तैसा तुझा खेळ नकळे कोण्हा ॥२॥ नामा म्हणे तुझी नकळे करणी । जन्मोजन्मीं चरणीं ठेवीं मज ॥३॥
154 नापिकाचे परि वरी बरी बोडी । परि अंतरींची वाढी उणी नव्हे ॥१॥ तैसें माझें मन न राहे समूळीं । प्रपंच कवळी दाही दिशा ॥२॥ भक्ति प्रेमभाव वरी वरी दावी । अंतरीं आटवी घराचार ॥३॥ मी लटिका जाण असे परोपरी । तारी भवसागरीं म्हणे नामा ॥४॥
155 नाम गाऊं नाम ध्याऊं । नामें विठोबासी पाहूं ॥१॥ आम्ही दैवाचे दैवाचे । दास पंढरिरायाचे ॥२॥ टाळ दिंडी घेऊनि हातीं । केशवराज गाऊं गीतीं ॥३॥ नामा म्हणे लाखोली सदा । अनंत नामें वाहूं गोविंदा ॥४॥
156 नामयाचें प्रेम केशवची जाणें । केशवासी राहणें नामयापासीं ॥१॥ केशव तोचि नामा तोचि केशव । प्रेमभक्तिभाव मागतसे ॥२॥ विष्णुदास नामा उभा केशवद्वारीं । प्रेमाची शिदोरी मागतसे ॥३॥
157 नामें तरूं अवघे जन । यमपुरीं घालूं वाण ॥१॥ करूं हरिनामकीर्तना । तोडूं देहाचें बंधन ॥२॥ करूं हरिनामाचा घोष । कुंभपाक पाडूं ओस ॥३॥ ऐस नामा यशवंत । विठोबाचा शरणागत ॥४॥
158 नावडे प्रपंच तापत्रय माया । येईं धांवोनियां केशिराजा ॥१॥ भवभयें फार भ्यालों जन्मांतरा । चौर्यांशींचा फेरा बुडवितो ॥२॥ सत्कथा श्रवण नाम संकीर्तन । न घडे भजन मज देवा ॥३॥ नवविधा भक्ति कवणें केली कैसी । नामा म्हणे ऐसी दावी माते ॥४॥
159 निंदा आणि स्तुति तुझीच करणें । परि आणिकांचे न घेणें गुणदोष ॥१॥ वैर अथवा सख्या तुझियेच । परि न पडो ह्रदयीं विसर तुझा ॥२॥ दास्य अथवा सत्ता गोपाळांचे परी । असो तुजवरी सर्वलोभ ॥३॥ जिणें अथवा मरणें तुझियेच द्वारीं । उदास नरहरि करिसी झणें ॥४॥ नामा म्हणे थोर शिणलों पंढरिनाथा । स्वामीचें नेणातां प्रेमसुख ॥५॥
160 निरंजनीं वनीं पाषाण पैं व्हाव्वें । परी जन्मा न यावें मागत्याच्या ॥१॥ राजाचें लेकरूं पांघरे वाकळ । तेव्हां तें सकळ लाज कोणा ॥२॥ पोसवेना तरी दवडुनि देई देवा । नामा तुज केशवा विनवितसे ॥३॥
161 निर्गुण नामाची अनंत कल्पना । धरुनि नारायणा व्यक्ति येसी ॥१॥ लाज लावियेली त्या निर्गुणपणा । श्रुतींच्या वचना वाखाणितां ॥२॥ तैसें न हो आम्ही करणीचे विलगत । नामाचे निकट दास तुझे ॥३॥ चतुरा शिरोमणी नंदाना खिल्लारी । हें अघटित मुरारी नाम जरी ॥४॥ तुमचे तुम्हां देवा सांगतां तें निकें । समर्थांसी रंकें बोलिजे केवीं ॥५॥ देवा मुगुटमणी हें बोलती पुराणें । आणि बळिचें राखणें द्वार काय ॥६॥ अर्जुना सारथी रथा वागविसी । उच्छिष्टें काढिसी धर्माघरीं ॥७॥ विश्वंभर नाम तुझें कमळापति । जगीं श्रुति स्मृति वाखाणिती ॥८॥ गौळियांचे घरीं दहीं लोणी चोरूनी । खातां चक्रपाणि लाजसीना ॥९॥ आतां दीनानाथ ब्रीद तुझें साचें । तरी भूषन आमुचें जतन करी ॥१०॥ येर ठेवा ठेवी कायसी आम्हां आतां । विनवितो नामा केशिराजा ॥११॥
162 निर्गुणपणाच्या घेसी अभिमाना । तुन नारायणा शोधीं नामीं ॥१॥ काय तुझी भीड धरावी म्यां आतां । कृपाळु अनंता म्हणें ना मी ॥२॥ पुंढलिकासाठीं उभा राहिलासी । ठकडा तूं होसी म्हणे ना मी ॥३॥ नामा म्हणे नको मज चाळवण । लवकरी चरण दावींना का ॥४॥
163 नेणे घातमात नव्हे कळावंत । शास्त्रज्ञ पंडित तोहि नव्हे ॥१॥ रंकाहुनि रंक संतांचा सेवक । मी नामधाराक विठोबाचा ॥२॥ नव्हे बहुश्रुत नव्हे ज्ञानशीळ । नव्हे मी वाचाळ तर्कवादी ॥३॥ नामा म्हणे राया विठोचा डिंगर । नामें पैलपार पावविलों ॥४॥
164 नेणें भक्ति कांहीं करुं कैसी सेवा । हें तों मज देवा समजेना ॥१॥ करूं कैसा जप करूं कैसें ध्यान । नाहीं माझें मन स्थिर देवा ॥२॥ कामक्रोध यांची मोठी हे जाचणी । जालों वेडयावाणी समजेना ॥३॥ नामा म्हणे माझे सांवळे विठाई । येऊनियां राही ह्रदयामाजीं ॥४॥
165 नेत्र तान्हेले पाजीं पाणी । पंढरिचे मायबहिणी ॥१॥ बाळ पालकीं करी सोर । माते आला निद्राभर ॥२॥ जागी न होसी गे माये । प्राण जातो करुं काये ॥३॥ नामा म्हणे चक्रपाणि । चरणीं घातली लोळणी ॥४॥
166 नेत्र माझे रोडले आठवे माहेर । कैं भेटेन निरंतर बाईयांनो ॥१॥ चतुर्भुज विठ्ठलु कैं देखेने डोळां । भक्तांचा जिव्हाळा जीव माझा ॥२॥ येणें शोकें रे वाळलों शरीरीं । आठवतों हरि मी काय सांगूं ॥३॥ चारी भुजा उचलोनि क्षेम देईल । कैं मज नेईल पंढरपुरा ॥४॥ काम चित्तीं न लगे आतां कांहीं मज । कैं भेटेल राजा पंढरीचा ॥५॥ त्यासि आठवितां ह्रदय वो फुटे । तो कैं मज भेटे बाप माझा ॥६॥ येणें देह न पवती मग काय येउनि करिती । सांगा काकुळती रखुमाईसी ॥७॥ वामांगीं रुक्मिणी कैं देखेन दोन्ही नयनीं । फेडीन पारणीं डोळियांची ॥८॥ जंव जंव आठवती तंव तंव उभड येती । कोणी न सांगती विठ्ठलासी ॥९॥ ऐसें श्रवणीचें सुख कैचें नवो देखे । येथें येऊनि बहुतेकें काय करिती ॥१०॥ गरुडटके अवघे आकाशीं ओळले । येवोनि सांगितलें विष्णुलोकीं ॥११॥ मग जावोनियां तया ठायां पाहें पंढरिराय । लागेन मी पायां तयाचिये ॥१२॥ याचि लागोनियां आलों लवडसवडी । सांडियेली थड मग रोखिलासी ॥१३॥ गरुडावरी आरूढ बाप माझा जाला । मज न्यावया आला बाईयांनों ॥१४॥ येणें हर्षें संतोष कोठेंच न माये । भेटला विठ्ठल माय रुक्मिणीसहित ॥१५॥ नामा जातसे माहेरा एकला पंढरपुरा । हरी दातारा संसारा वेगळा करीं ॥१६॥
167 पंढरीनिवासा सख्या पांडुरंगा । करी अंगसंगा भक्ताचिया ॥१॥ भक्त कैवारिया होसी नारायणा । बोलतां वचना काय लाज ॥२॥ मागें बहुतांचे फेडियेलें ऋण । आम्हांसाठीं कोण आली धाड ॥३॥ वारंवार तुज लाज नाहीं देवा । बोल रे केशवा म्हणे नामा ॥४॥
168 पक्षिणी प्रभाते चारियासी जाये । पिलें वाट पाही उपवासी ॥१॥ तैसें माझें मन करी वो तुझी आस । चरण रात्रंदिवस चिंतितसे ॥२॥ तान्हें वत्स घरीं बांधलेंसे दावा । तया ह्रदयीं धांवा माउलीचा ॥३॥ नामा म्हणे केशवा तूं माझा सोईरा । झणें मज अव्हेरा अनाथनाथा ॥४॥
169 पतितपावना धांवसी निर्वाणीं । ब्रीद चक्रपाणि सत्य केलें ॥१॥ काय अपराध कोणाचे पाहिले । नाहीं तुवां त्यागिलें नष्टखळां ॥२॥ अजामेळासाठीं आहार वर्जिले । बीज तें भाजिलें भवमूळ ॥३॥ नामा म्हणे नागवेंचि बरें । आतां उणें पुरें पाहूं नका ॥४॥
170 परियेसी वासने संकल्प स्वरूपे । विश्वव त्वां आटोपें वश केलें ॥१॥ ब्रह्मादिक तुझे इच्छेचें खेळणें । विषयाकारणें लोलिंगता ॥२॥ परि माझ्या मना सांडी वो समर्थें । देईं मज दीनातें कृपादान ॥३॥ वेदशास्त्रवक्ते वित्पन्न थोरले । तृणापरीस केले ह्ळुवट ॥४॥ कृपणाचे द्वारीं होऊनि याचक । विसरले सुख आत्महित ॥५॥ एके अभिमानें भ्रांत जालें चित्त । भजती इंद्रियातेम दीनरूपें ॥६॥ शब्द स्पर्श रूप रसगंधे फांसा । गुंतले दुराशा तळमळित ॥७॥ येकातें लाविला पुत्र कलत्र धंदा । नेणती ते कदा सुखगोष्टी ॥८॥ जन्म मरणांचे जुपियले पांतीं । आकल्प भोगिती नाना योनी ॥९॥ ऐसे तुझे संगें बहु जालो हिंपुटी । पाडिली तुटी संतसंगा ॥१०॥ नामा म्हणे पुढती गांजिसील मज । येईल केशिराज सोडवणें ॥११॥
171 पांचमुखीं रुद्र स्वयें करी स्तुति । चहू मुखी कीर्ति वर्णी ब्रह्मा ॥१॥ देवी देव सर्वा विस्मयो पावती । विठोबाची ख्याति कोण वानी ॥२॥ परीक्षितीसाठीं प्राण त्यजी सर्व । रावणाचा गर्व स्वयें हाणी ॥३॥ नामा म्हणे तुज सकळ समान । माझे दोष गुण मानी काय ॥४॥
172 पाहतां तुझे चरण हरली भवव्यथा । पुढतीं एक चिंता वाटतसे ॥१॥ झणीं मुक्तिपद देसी पांडुरंगा । मग या संतसंगा कोठें पाहूं ॥२॥ मग हे पंढरी आनंद सोहळा । कवणाचे डोळां पाहूं देवा ॥३॥ मग हे हरिकथा अमृत संजीवनी । कवणाचे श्रवणीं ऐकों देवा ॥४॥ नामा म्हणे मज पंढरीची सोये । अनंत जन्म होये याचिलागीं ॥५॥
173 पाहुनि न दिसे लौकिक वेव्हारीं । ऐसा तूं अंतरीं लावीं मज ॥१॥ परि तुझ्या चरणीं माझें अनुसंधान । तरी प्रेम पावन देईं देवा ॥२॥ मनाचिये वृत्तीं अखंड तूं राहोनी । झेंपावती झणीं कामक्रोध ॥३॥ नामा म्हणे ऐसे पावसी तूं मातें । तरी मी जीवें तूतें व विसंबें ॥४॥
174 पाहूं द्यारे मज विठोबाचें मुख । लागलीसे भूक डोळां माझ्या ॥१॥ कस्तुरी कुंकुम भरोनियां ताटीं । अंगीं बरवंट गोपाळाच्या ॥२॥ जाईजुई पुष्पें गुंफोनियां माळां । घालूं घननीळा आवडीनें ॥३॥ नामा म्हणे विठो पंढरीचे राणे । डोळियां पारणें होत असे ॥४॥
175 पुंडलिक वरद आनंदें अभेद । विठ्ठल विद्गद नाम तुझें ॥१॥ पाव गा वेगीं मजालागीं झडकारी । बुडतों भवसागरीं तारी मज ॥२॥ आकांत अवसरीं स्मरिला गजेंद्र । दिनानाथ ब्रीद साच केलें ॥३॥ स्मरली संकटीं द्रीपदी वनवासी । धांवुनि आलासी लवलाही ॥४॥ प्रल्हादेंज तुजलागीं स्मरिलें निर्वाणीं । संकटापासुनि रक्षियेलें ॥५॥ नामा म्हणे थोर पिडिलों गर्भवासें । अखंड पाहातसें वाट तुझी ॥६॥
176 प्रेमपिसें भरलें अंगीं । गीतें छंदें नाचों रंगीं ॥१॥ कोणे वेळे काय गाणें । हें तो भगवंता मी नेणें ॥२॥ वारा धावे भलतेया । तैसी माझी रंगछाया ॥३॥ टाळ मृदंग दक्षिणेकडे । आम्ही गातों पश्चिमेकडे ॥४॥ बोले बाळक बोबडें । तरी तें जननीये आवडे ॥५॥ नामा म्हणे गा केशवा । जन्मोजन्मीं देई सेवा ॥६॥
177 प्रेमफांसा घालुनियां गळां । जितें धरिलें गोपाळा ॥१॥ एक्या मनाची करूनि जोडी । विठ्ठल पायीं घातली बेडी ॥२॥ ह्रदय करूनि बंदिखाना । विठ्ठल कोंडुनी ठेविला जाणा ॥३॥ सोहं शब्दें मार केला । विठ्ठल काकुलती आला ॥४॥ नामा म्हणे विठ्ठलासी । जीवें न सोडी सायासी ॥५॥
178 बहु दिस होतों तुमचां गांवीं । आतां कृपा असों द्यावी ॥१॥ आम्ही जातों आपुल्या गांवा । विठोबा लोभ असों द्यावा ॥२॥ आमुचे ठायीं तुझें मन । तुझें चरण आमुचे प्राण ॥३॥ आमुचें स्मरण असों द्यावें । लिखित पत्र पाठवावें ॥४॥ नामा म्हणे जी केशवा । अखंड प्रेमभाव द्यावा ॥५॥
179 बहुत जन्माशेवटीं तुजशीं जाली भेटी । बहु मी हिंपुटी जालों थोर ॥१॥ बहु कीर्ति ऐकिली बहुतांचे मुखीं । बहुत केले सुखी शरणागत ॥२॥ बहुतां आसक्त बहुतां ओळगणा । बहुत विटंबना जाली माझी ॥३॥ बहु फेरे पाहिले बहु दुःख साहिलें । बहु चित्त वाहिलें दुर्भरची ॥४॥ बहुत काळ गेले बहु अन्याय केले । बहु नाहीं जोडिलें नाम तुझें ॥५॥ नामा म्हणे केशवा एक उरली वासना । घ्यावी नारायणा चरणसेवा ॥६॥
180 बाप संतसभा भली । बहुता पुण्यें जोडिली । ह्रदयींची गोवी आपुली । संताप्रति निवेदीन ॥१॥ आजि प्रसंग हरिभक्तीचा । हरि स्वभावें उच्चारु वाचा । विठोबा ऋणिया रे भक्तांचा । ऋण फेडितो भक्तांचें ॥२॥ अरे हा अनादिचा लागु करी । अरे जन्माची उभरी भरी । आमुचा लागिया श्रीहरी । दो उत्तरीं निवडावा ॥३॥ आतां असो हा कर्मविभागु । आम्ही मागूं आपुला लागूं । जरि हा म्हणेल निःसंगु । तयासी आम्हांसी संबंध कायसा ॥४॥ जरि हा न लगे आमुचें ऋण । हातीं घेऊनि सुदर्शन । आम्ही करूं हरिकीर्तन । तेथें तिष्ठत कां उभा ॥५॥ मागें चाळविलि या रिति । परि आम्हांसि आलिया प्रचीति । ज्यासि हरिची सोय संगती । तयासि न मनें अन्य स्थळ ॥६॥ हरि कौसाळ मल्ल म्हण्ती । ते अवघी रे जाणाची भ्रांति । सेवा हरिची सांगताती । संत होती हरिकडे ॥७॥ आणिक एकू आम्हांसी आठवलें । आम्ही भांडूकरे एकले । आमुचें केलें काय चाले । य हरिभक्तां वांचूनि ॥८॥ जे हरिभक्ति विरहित । त्यांचें हरिचरणीं न बोधो चित्त । अवघे मिळूनि हरिचे भक्त । हरि व्हावा म्हणताती ॥९॥ आणिक एक नवल परि । जो याची सेवा करी । त्याचें सर्वस्व हरी । आणि श्रिहरि नाम मिरवतु ॥१०॥ हरि आळवितां मागा उभा । आठवितां पुढें उभा । हरि ध्यातां ह्रदयीं उभा । हें तंव सभा विचारा ॥११॥ आमुचें हो तेंच तुम्हीं विनवावें । आम्हांसि मानलें आघवें । किती येरझारीं शिणवावें । शरण रिघावें श्रीहरी ॥१२॥ विश्व श्रीहरिचें आघवें । म्यां गार्हाणें कवणाशीं द्यावें । लागे तासिच मागावें । हरिविण ठावो नसे वो ॥१३॥ वीरराया पंढरीनाथा । आतां अपंगावें शरणागता । जरी उपेक्षिसी सर्वथा । वाट कोणाची पहावी ॥१४॥ नको नको निंदा स्तुति । हाचि भावो हेचि भक्ति । मज नेदी पुनरावृत्ति । विष्णुदास म्हणे नामा ॥१५॥
181 बाळका स्तनपान करविते माता । टाळितां परता चरणीं लोळे ॥१॥ हातीं घेऊनि शिपटीं माय लागे पाठीं । चरणीं घाली मिठी परते नोहें ॥२॥ तैसें माझें मन तुजलागीं देवा । न विसंबे केशवा क्षनभरी ॥३॥ चातक तेथें पाणी तृषाक्रान्त वनीं । वाट पाहे गगनीं जीवनाची ॥४॥ निराळेंचि पीयुष वर्षे तयालागीं । आळवितां वेगीं मेघराया ॥५॥ वाललें हें तृन नसंडी हो क्षीर । तैसें भक्तीं स्थिर मन राहे ॥६॥ नामा म्हणे या जन्माचिया साठीं । चरणीं घाली मिठी परता नोहे ॥७॥
182 बुद्धिहीन अति करितों हव्यास । उठती दद्देश नाना मतें ॥१॥ एकापुढें एक नासोनियां जाती । सोशिली विपत्ति जन्ममरण ॥२॥ वासनेचें संगें बुडालों मी वायां । चुकवूं नको पायासवें भेटी ॥३॥ नामा म्हणे ऐसे गेले बहुतेक । वैकुंठनायका तारीं मज ॥४॥
183 बोलावूं पाठवूं एवढी कैंची शक्ति । या रंग श्रीपती त्वां बा यावें ॥१॥ येईं गा विठ्ठला पाहातसें आतां । या रंगा अनंता त्वां बा यावें ॥२॥ धांवत त्वां यावें धांवत त्वां यावें । या रंगा नाचावें पांडुरंगा ॥३॥ तिन्हीं त्रिभुवनीं तुझीच करणी । ठाव मागे चरणीं नामदेव ॥४॥
184 बोलूं ऐसे बोल । जेणें बोलें विठ्ठल डोले ॥१॥ प्रेम सर्वांगाचे ठायीं । वाचे विठ्ठल रखुमाई ॥२॥ परेहूनि परतें घर । तेथें राहूं निरंतर ॥३॥ सर्वांचें जें अधिष्ठान । तेंचि माझें रूप पूर्ण ॥४॥ नाचूं कीर्तनाचे रंगीं । ज्ञानदीप लावूं जगीं ॥५॥ सर्व सत्ता आली हातां । नामयाचा खेचर दाता ॥६॥
185 ब्रह्म अविनाश आणि आनंदघन । त्याहुनि चरण गोड तुझे ॥१॥ तें जीवें न सोडी अगा पंढरीनाथा । जाणसी तत्त्वतां ह्रदय माझें ॥२॥ परात्पर वस्तु ध्याईजे अपारापार । त्यांचे हें जिव्हार पाय तुझे ॥३॥ सच्चिदानंदघन जेथें हरपे मन । त्याहूनि चरण गोड तुझे ॥४॥ नामा म्हणे तुझें पाउल हें सार । तें माझें माहेर विटेवरी ॥५॥
186 भक्तांची आवडी मोठी त्या देवासी । सद्भक्तिप्रेमासी लांचावला ॥१॥ काय सांगूं आतां तयांचें तयांचें कौतुक । जेथें ब्रह्यादिक स्तब्धा ठेले ॥२॥ गज आणि गणिका भिल्लिणी कुंटिणी । नेल्या त्या विमानीं बैसोनियां ॥३॥ अजामीळ खळ कोळी तो वाल्मिक । तारिले अनेक एकसरां ॥४॥ धर्माचिये घर्रीं उच्छिष्ट काढी । जाहाला बराडी देवराव ॥५॥ नामा म्हणे कांहीं मागेना तो देव । मुख्य पाहे भाव दृढ त्याचा ॥६॥
187 भक्तीची अपेक्षा धरोनि अंतरीं । राहे भीमातीरी पंढरीये ॥१॥ अठ्ठावीस युगें गेलींज विचारितां । निर्गम सर्वथा नव्हे देखा ॥२॥ कटीं कर उभा शिणलें शरीर । धरोनि निर्धार भक्तिभावें ॥३॥ नामा म्हणे आतां नको खटपट । आमुचे बोभाट नको पाहूं ॥४॥
188 भवव्याघ्र देखोनि भ्याले माझे डोळे । जालेसें व्याकुळ चित्त माझें ॥१॥ पाव गा पाव गा पाव गा विठोबा । पाव गा विठोबा मायबापा ॥२॥ तूं भक्ता कैवारी कृपाळुवा हरी । येईं गा झडकरी देवराया ॥३॥ नामा म्हणे नेणें आन तुजवांचूनि । जनक जननी केशिराजा ॥४॥
189 भागलासि देवा धांव धांवणिया । दाखविसी पायां पांडुरंगा ॥१॥ गजेंद्र गणिका तुम्हां श्रमविलें । मी काय उगलें परदेशी ॥२॥ सोळा सहस्त्र आणि गोपी त्या उद्धरती । माझी कींव चित्तीं कां वा नये ॥३॥ नामा म्हणे आम्हां पुरे तुझा संग । वारंवार मगा वारी कोण ॥४॥
190 भावेंविण भक्ति कशानें हो करी । माया मोह वैरी देहामाजीं ॥१॥ तुझें नाम दिव्य रस जिव्हे स्वाद । नाश काम क्रोध करिती माझा ॥२॥ जे जे वस्तुसि नयनीं मी पाहे । त्या त्या धांवताहे विषयीं मन ॥३॥ नामा म्हणे थोर उबगलों संसारीं । पुढा काळ वैरी ग्रासूं पाहे ॥४॥
191 भिऊनि निघिजे समर्थाचे पोटीं । विषयांची तो भेटी नको मज ॥१॥ तैसा मी शरण आलों रे केशवा । मज त्वां राखावें पायांतळीं ॥२॥ नको उदासीन राखों अभिमान । माझें आगमन विचारीं कां ॥३॥ तुझेनि होईल तेंच मी मागेन । न सोडीं चरण अहर्निशीं ॥४॥ अविद्या अपारा संचरली देवा । आम्हासि कुढावा नाहीं कोणी ॥५॥ देवा आतां मज नको गर्भवास । नामा विष्णुदास विनवितसे ॥६॥
192 भुक्ति मुक्ति मागों तुज । तरी मज हांसती पूर्वज ॥१॥ मज प्रेम पढियें देवा । न मगें आन कांहीं सेवा ॥२॥ मोक्ष मागूं तुजप्रति । संत छलवादें हांसती ॥३॥ चाड धरीन ब्रह्मज्ञानीं । तरी मज व्यर्थ व्याली जननी ॥४॥ होऊं सिद्धीचा साधिता । दैवें सांडिलें तत्त्वता ॥५॥ नामा म्हण्ने कांहीं न मगें । उभ राहेन संतांमागें ॥६॥
193 भेटसी केधवां माझिया जिवलगा । ये गा पांडुरंगा मायबापा ॥१॥ चित्त निरंतरीं तुझे महाद्वारीं । अखंड पंढरी ह्रदयीं वसे ॥२॥ श्रीमुख साजिरें कुंडलें गोमटीं । तेथें माझी दृष्टी बैसलीसे ॥३॥ भेटिचें आरत उत्कंठित चित्त । तुजविन माझें हित कोण करी ॥४॥ कटीं कर विटे समचरण साजिरे । देखावया झुरे मन माझें ॥५॥ असुवें दाटलीं उभारोनि बाहे । नामा वाट पाहे रात्रंदिवस ॥६॥
194 भेटिलागीं माझा फुटतसे प्राण । काया वाचा मनें जीवेंभावें ॥१॥ जया देखे तया पुसें हेंचि मात । कैं मज अनंत बोलावील ॥२॥ संतसमागमें दसरा दिवाळी । ठेवूनि निढळीं बाहे सदाअ ॥३॥ सखे पंढरीचे येती वारकरी । आर्त निरंतरीं त्यांचे पायीं ॥४॥ नामा म्हणे ऐसें करी दंडवत । आमुतें पुनीत करी बापा ॥५॥
195 भेटीची आवडी उत्कंठित चित्त । न राहे निवांत एके ठायीं ॥१॥ जया देखे तया हेंचि पुसे मात । कां मज पंढरिनाथ बोलविना ॥२॥ कृपेचा सागर विठो लोभपर । माझा कां विसर पडिला त्यासि ॥३॥ माहेरींची आस दसरा दिवाळी । बाहे ठेवुनि निढळ वाटे पाहे ॥४॥ मखे वारकरी पंढरीस जाती । निरोप त्या हातीं पाठवीन ॥५॥ निर्बुजला नामा कंठीं धरिला प्राण । करीतसे ध्यान रात्रंदिवस ॥६॥
196 भोगावरी आम्ही घातिला पाषाण । मरणा मरण आणियेलें ॥१॥ नाहीं यासी पतन् न होय बंधन । नित्य हेंचि स्नान राचनामीं ॥२॥ नामा म्हणे भाव सर्वाभूतीं करा । आणिक पसारा घालूं नका ॥३॥
197 मंत्रयंत्र दीक्षा सांगातील लक्ष । परि रामा प्रत्यक्ष न करी कोण्ही ॥१॥ प्रत्यक्ष दावील रामा धरीन त्याचे पाय । आणिकांचीं काय चाडा मज ॥२॥ सर्व कामीं राम भेटविती मातें । जीवेंभावें त्यांतें ओवाळीन ॥३॥ नामा म्हणे आम्हां थोर लाभ जालाअ । सोईरा भेटला अंतरींचा ॥४॥
198 मज गांजिल्याचा धांवा । सावधान परिसावा ॥१॥ विठो सुजाणाच्या राया । धांव माझया करुणालया ॥२॥ माझें मन हें पामर । भ्रांत हिंडे दारोदार ॥३॥ मोहोपाशीं मज बांधिलें । भेणें वैराग्य साधिलें ॥४॥ नामा म्हणे काय करूं । तुजविन भूमिभारू ॥५॥
199 मज चालतां आयुष्यपंथें । तारुण्यवन पातलें तेथें । मदमछरादि श्वापदें बहुतें । आलीं कळकळीत मजपाशीं ॥१॥ तीं धांवती पाठोपाठीं । पाहे तंव विषयाचे घाटीं । काम क्रोध व्याघ्रांची दाटी । देखोनि पोटीम रिघालें भय ॥२॥ मगा स्वधर्ममार्गीं रिघालों । तंव अहंकारतस्करें आकळिलों । राहें राहें म्हणोनि उभा केलों । तेणें शिंतरलों स्वामिया ॥३॥ जंव क्षण एक उघडिले डोळे । पाहे तंव कंठ दाटला व्याळें । मायमोहसर्पीं डंखिलें । त्यांचिये गरळें झळंबलों ॥४॥ जंव न पवे शेवटील लहरी । तंव धांव धांव उपाव करी । विष्णुदास नामा धांवा करी । माझा कैवारी केशिराजु ॥५॥
200 मन नेणेंज तुझ्या मनाचा विश्वास । येर तो हव्यास गोड वाटे ॥१॥ तुझें प्रेम नेणें तुझें प्रेम नेणें । सांग काय करणें केशिराजा ॥२॥ मज घातलें संसारीं पीडिलों कर्मभांडारीं । कृपा नरहरी करी मज ॥३॥ नामा म्हणे मी तों ठायींचाचि अपराधी । केशवा कांहीं बुद्धि सांग मज ॥४॥
201 मन माझें चोरटें लागलें कुसंगीं । बांधिलें षड्वर्गीं धरोनि त्यातें । केउता गेलासि माझ्या कृपावंता । ये गा पंढरिनाथा मायबापा ॥१॥ वासनेची बेडी घालोनि माझे पायीं । विषयवज्रघायीं त्रासिताती । आशा तृष्णा माया आणिक कल्पना । करिताति कामना नानाविध ॥२॥ कामक्रोध दंभ लाविताती कळा । ये माझ्या गोपाळा सोडवणें । नामा म्हणे माझें घेउनियां चित्त । करि बंधन मुक्त संसाराचें ॥३॥
202 मनीं जें जें देखें परी दृष्टी नेणें । प्रेमाची ते खूण जाणावया ॥१॥ काय करूं माय बाप गा विठ्ठला । मजसि कां अबोला धरिलासी ॥२॥ मानसीं वसणें प्रत्यक्ष पाहणें । तुझें नाम गाणें तरी साच ॥३॥ नामा म्हणे किती सांगावें गा तुज । केशवा हें गुज पुरची माझें ॥४॥
203 ममत तुटेना मज केशिराजा । अंगीं भाव दुजा लागे पाठीं ॥१॥ शरीरीं तितीक्षा नाहीं क्षमा शांति । यालागीं श्रीपति वायां गेलों ॥२॥ नामा म्हणे देवा तारिसी पतिता । म्हणोनियां सत्ता केली आम्हीं ॥३॥
204 मयुरध्वज राजा महापापी जाण । उभा नारायण जोडी हात ॥१॥ कर्वत आणसि सकळां देखतां । कांतिसी तत्वता मांस त्याचें ॥२॥ कपोतणी मागें पारध्याचा वेष । दावी ह्रषिकेश रूप त्यासी ॥३॥ नामा म्हणे तुझें करणें उचित । कां मज प्रचित न ये देवा ॥४॥
205 मरणें पेरणें जन्म उगवणें । मायेची ते खूण सांगितली ॥१॥ संग तुझा पुरे संग तुझा पुरे । संग तुझा पुरे नारायणा ॥२॥ तूं तरी न मरे मी तरी न पुरे । भक्ति हे संचरे हाचि लाभु ॥३॥ नामा म्हणे माझ्या ठायिंचा मी नेणें । संसार भोगणें तुझी जाला ॥४॥
206 महिमा अगाध यात्रा कार्तिकीये । आला पंढरीये नामदेव ॥१॥ भक्त शिरोमणी पंढरीच्या नाथा । कृपाळुवा माता बाळकासी ॥२॥ धन्य नामदेव धन्य नामदेव । जिवीं तुझे पाव न विसंबे ॥३॥ भक्त सप्रेम मिळाले अपार । करिती गजर हरिनामीं ॥४॥ नटे महाद्वारीं झळके पताका । करिती ब्रह्मादिक पुष्पवृष्टी ॥५॥ नामघोष कानीं समस्त ऐकती । पाषान द्रवती तेणें प्रेमें ॥६॥ नामा म्हणे जीव निवालासे येथें । पाहतां विठोबातें श्रमु नेला ॥७॥
207 माझिया मनाचें हिंडणें जे जे ठायीं । तेथें तेथें राही पांडुरंगा ॥१॥ भीमा चंद्रभागा वैकुंठ पंढरी । दावीं दृष्टीभरी निरंतर ॥२॥ पुंडलिकासमोर लक्ष निरंतरीं । तैसाची अंतरीं येऊनि राहे ॥३॥ कटीं कर विटे समचरण गोमटें । पाहतां अति निकट हेंचि ध्यान ॥४॥ पुरवीं माझी आस तूं बाप माउली । करीं मज साउली पद्मकरें ॥५॥ नामा म्हणे झणें करिसी उदास । होती कासावीस प्रान माझे ॥६॥
208 माझी कोण गति सांग पंढरिनाथा । तारिसी अनाथ कीं बुडविसी ॥१॥ मनापासोनियां सांग मजप्रती । पुसें काकुळती जीवाचिये ॥२॥ न बोलसी कां रे धरिला अबोला । कोणासी विठ्ठला शरण जाऊं ॥३॥ कोणासी सांकडें घालावें हें सांग । नको करूं राग दीनावरी ॥४॥ बाळकासी जैसी एकचि वो माये । तैसे तुझे पाये आम्हांलागीं ॥५॥ नामा म्हणे देवा अनाथाच्या नाथा । कृपाळुवा कांता रखुमाईच्या ॥६॥
209 माझे गुणदोष जरि विचारिसी । सर्व नारायण अपराधी ॥१॥ सेवाहीन दीन पातकाची रासी । आतां विचारिसी काय ऐसें ॥२॥ अंगुष्ठ धरूनि मस्तकापर्यंत । अखंड दुष्कृत आचरलोंज ॥३॥ स्वप्नामाजी तुझी घडली नाहीं भक्ति । पुससी विरक्ति कोठोनियां ॥४॥ तूंचि माझा गुरु तुंचि माझा स्वामी । सकळ अंतर्यामीं वससी तूं ॥५॥ नामा म्हणे माझें चुकवी जन्ममरण । न करीं मी सीण पांडुरंगा ॥६॥
210 माझे मनींज ऐसें होतें आतां देवा । भाव समर्पावा तुझे चरणीं ॥१॥ तंव मायामोहें मजसी केला हेवा । लोटियेलें भवजळामाजीं ॥२॥ आशानदी पुरीं वाहविलीं वेगीं । काढी मज हरी कृपाळुवा ॥३॥ सरितेमाजीं धारिलों या मदनमगरें । पुढारें माघारें जाऊं नेदी ॥४॥ थडिये उभाउभीं धांवगा श्रीहरी । मजा हानी थोरी सर्वस्वें गेलों ॥५॥ भक्ति नवरत्नांची बुडाली वाखोरी । काढी वेगीं हरी मायबापा ॥६॥ धीर आणि विचार ह्या दोन्ही सांगडी । श्रद्धा दोरी पुढील तुटोनि गेली ॥७॥ भावबळें सांपडलों दाटलों उभडीं । वेगीं घाली उडी कृपाळुवा ॥८॥ तुझे भक्तिविण कोरडा होय गळा । नेतो रसातळा क्रोध मीन ॥९॥ नामा म्हणे तुझा मी सकळ जीवा । तरी हा काढावा शरणांगत ॥१०॥
211 माझे मनोरथ पूर्ण कीजे देवा । केशवा माधवा नारायणा ॥१॥ नाहीं नाहीं मज आणिक सोयरा । न करीं अव्हेरा पांडुरंगा ॥२॥ अनाथाचा नाथ होसी तूं दयाळा । किती वेळोवेळां प्रार्थू आतां ॥३॥ नामा म्हणे जीव होतो कासावीस । केली तुझी आस आतां बरी ॥४॥
212 माझें सर्व भाग्य केशवाचे पाय । आणिक उपाय नेणों आम्ही ॥१॥ पक्षी अवचित अंगणांत आला । घेऊनियां गेला सारा तेणें ॥२॥ हाटकरी आम्ही हाटसी पैं गेलों । फिरोनियां आलों गांवामाजीं ॥३॥ नामा म्हणे नमूं सर्व जीवजंत । दिसे ते अनंत दृष्टीपुढें ॥४॥
213 माझ्या बोवडिया बोला । चित्त द्यावें वा विठ्ठला ॥१॥ वारा जाय भलत्या ठायां । तैसी माझी रागछाया ॥२॥ गातां येईल तेणेंचि गावें । येरीं हरि हरि म्हणावें ॥३॥ तान मान नेणें देवा । नामा विनवितो केशवा ॥४॥
214 माता पिता बंधु कुळगुरु दैवत । सखा सर्व गोत केशिराजा ॥१॥ जन्मोनि पोसणा तुझा मी अंकिला । आणिकांचा पांगिला न करीं देवा ॥२॥ विष्णुदास नामा विनवितो केशवा । झणीं घालिसी देवा संसारासी ॥३॥
215 माथां मोरपिसा वेठी । श्रवणीं कुंडलें पदक कंठीं । हातीं घेऊनी वेताटी । गोधना पाठीं लागले ॥१॥ तुझीं पाउलें अनंता । न विसंबे गा सर्वथा । गोविंदा माधवा अच्युता । श्री विठ्ठला ॥२॥ गाई गोवळी पावला । येक म्हणती वळावळा । विष्णुदास नामा चरणाजवळा । अखंड वळत्या देतसे ॥३॥
216 मायबापाची ते सांडुनियां आस । धरिली तुझी कांस पांडुरंगा ॥१॥ झणीं पांडुरंगा उपेक्षिसी मातें । तरी हांसतील तूंतें संतजन ॥२॥ नामा म्हणे तुझीं पाउलें समान । तेथें माझें मन स्थिरावलें ॥३॥
217 मी तो तुझा दास न करी उदास । मायामोहपाश तोडीं देवा ॥१॥ प्राण जावो परी नको करूं त्याग । करी अंगसंग अंगिकार ॥२॥ अंगीकारी आतां अजामेळ अंतीं । समान श्रीपती सम करी ॥३॥ नामा म्हणे ऐसें वर्णावें म्यां किती । नामें केली ख्याति चराचरीं ॥४॥
218 मुंगीचिया गळां बांधोनियां मेरू । तेणें हा प्रकारू कळों आला ॥१॥ माळियाचे पोरें लपविलें पोटीं । तेणें जगजेठी सुख मानीं ॥२॥ कुलालाचे हातीं तुडविलें मूल । दाखवी नवल तयासाठीं ॥३॥ मजसाठीं काय धरियेलें मौना । धांव नारायना नामा म्हणे ॥४॥
219 मुक्तपण आम्हां नको देवराया । भेटी मज पायां पुरे बापा ॥१॥ चतुरपणाची नको मज चाड । प्रेमभाव गोड पुरे बापा ॥२॥ खाय भिल्लिणीचीं फळें आवडतीं । काय त्याचे चित्तीं दुजा भाव ॥३॥ भावापाशीं देव उभा सर्वकाळ । खेचरानें बळें दाखविला ॥४॥ नामा म्हणे मज सद्गुरुची सत्ता । आम्हासि मुक्तता नको बापा ॥५॥
220 मुळींच मी जाणें तुझा ठेंगेपणा । काय नारायणा बोलसील ॥१॥ पुरे पुरे आतां तुमचे आचार । मजशीं वेव्हा घालूं नको ॥२॥ लालुचाईसाठीं मागे भाजीपाना । लाज नारायणा तुज नाहींज ॥३॥ नामा म्हणे काय सांगों तुझी कीर्ती । वाउगी फजिती करूं तुज ॥४॥
221 मोहभुजंगें डंखिलें । विषयलहरीं झांकोळिलें ॥१॥ धांव धांव चक्रपाणि । आणिका न करवे धांवणी ॥२॥ नामा म्हणे निर्विष जालों । केशव नामें उपचारिलों ॥३॥
222 यज्ञ याग दान व्रत उद्यापन । हें नेणें मी साधन काय करूं ॥१॥ जप तप होम स्वधर्माचरण । नव्हे तीर्थाटण कांहीं मज ॥२॥ गया पिंडदान प्रयागींचें स्नान । कर्म अनुष्ठान नव्हे मज ॥३॥ भक्ति उपासना देवाचें पूजन । ध्यान उपोषण नव्हे मज ॥४॥ पृथ्वीचें भ्रमण अनुताप संपूर्ण । सारासार खूण नकळे कांहीं ॥५॥ पुण्य नाहीं गांठीं पापाचें संचित । परम पतित वाटे मज ॥६॥ माझा देह आहे पातकांचा थारा । मी अपराधी खरा कळलेसें ॥७॥ पुराणप्रसिद्ध नाम तुझें सार । ऐसें निरंतर बोलताती ॥८॥ अन्याथा वचन नोहे हें प्रमाण । तरी ब्रीदें जाण सांडवलीं ॥९॥ तुम्ही व्रीद आपुलें जतन करणें । तरी नारायणें सांभाळावें ॥१०॥ नामेंविण कांहीं आम्हांपाशीं नाहीं । विचारोनी पाही पांडुरंगा ॥११॥ धन वित सर्व आमची हे जोडी । नामा म्हणे गोडी नामीं तुझें ॥१२॥
223 युक्तिप्रयुक्तीचें प्रमाण मी नेणें । केशवचरणें ध्यातों मनीं ॥१॥ आणिक साधन काय म्यां करावें । ब्रह्मादिक देव मौन ठेले ॥२॥ आतां मी कायसा करावा आधार । चरण विर्धार देवपूजा ॥३॥ नामा म्हणे तुझा अंत नाहीं पार । काय म्यां पामर जाणों आतां ॥४॥
224 येइना अझुनी श्रीकृष्ण सदना । गोंवळा रक्षणा मायबाप ॥१॥ लावुनि आशा फिरविशी दिशा । प्रेमभाव कैसा दावीं आतां ॥२॥ बाळेभोळे जन करिती विनंती । मोकलिसी अंतीं म्हणे नामा ॥३॥
225 येई गे विठ्ठले अनाथाचे नाथे । माझे कुळदैवते पंढरीचे ॥१॥ पंच प्राणांचा उजळोनि दिपक । सुंदर श्रीमुख ओवाळीन ॥२॥ मनाचा प्रसाद तुजलागीं केला । रंगभोग आपुला घेऊनि राहे ॥३॥ आनंदाचा भोग घालिल आसनीं । वैकुंठवासिनी तुझ्य नांवें ॥४॥ आपुलें म्हण्वावें सनाथ करावें । भावें संचारावें ह्रदयांत ॥५॥ नामा म्हणे माझे पुरवी मनोरथ । देई सदोदित प्रेमकळा ॥६॥
226 येई वो कृपावंते अनाथांचे नाथे । निवारीं भवव्यथे पांडुरंगे ॥१॥ मी बाळक भुकाळु तूं माउली कृपाळु । करीं माझा सांभाळु पंढरिराया ॥२॥ माझें माहेर पैं नित्य आठवे अंतरीं । सखा विटेवरी पांडुरंग ॥३॥ मी देह तूं चैतन्य मी क्षुधार्म तूं अन्न । मी तृषार्त तूं जीवन पांडुरंगा ॥४॥ मी चकोर तूं चंद्र मी सरिता तूं सागर । मी याचक तूं दातार पांडुरंगा ॥५॥ मी धनलोभी शुंभ तूं पूर्ण कनक कुंभ । मी मगर तूं अंभ पांडुरंगा ॥६॥ मी चातक तूं मेघ मी प्रवृत्ति तूं बोध । मी शुष्क नदी तूं ओग पांडुरंगा ॥७॥ मी दोषी तूं तारक मी भृत्य तूं नायक । मी प्रजा तूं पाळक पांडुरंगा ॥८॥ मी पाडस तूं कुरंगिणी मी अंडज तूं पक्षिणी । मी अपत्य तूं जननी पांडुरंगा ॥९॥ मी भक्ति तूं निजसोय मी ध्यान तूं ध्येय । मी आडळ तूं साह्य पांडुरंगा ॥१०॥ ऐसी जे जे माझी विनंती ते तुजचि लक्ष्मीपती । निज सुख सांगाती पांडुरंगा ॥११॥ शीघ्र येई वो श्रीरंगे भक्त मानस घे गे । प्रेमपान्हा दे गे नामदेवा ॥१२॥
227 येई वो विठ्ठले मजलागीं झडकरी । बुडतों भवसागरीं काढी मज ॥१॥ आकांत आवसरी स्मरलीसे गजेंद्रें । दीनानाथ ब्रीदें साच केलीं ॥२॥ स्मरलीसे संकटीं द्रौपदी वनवासी । धांवोनि आलीसी लवडसवडी ॥३॥ प्रल्हादें तुजलागीं स्मरिलें निर्वाणीं । संकटापासोनि राखियेलें ॥४॥ नामा म्हणे थोर पीडिलों भर्भवासें । अखंड पाह्तुसे वाट तुझी ॥५॥
228 येई हो विठ्ठले भक्तजनवत्सले । करुणा कल्लोळे पांडुरंगे ॥१॥ सजलजलदघन पीतांबर परिधान । येई उद्धरणें केशिराजे ॥२॥ नामा म्हणे तूं विश्वाची जननी । क्षिराब्धिनिवासनी जगदंबे ॥३॥
229 येतां जाता थोर कष्टलों गर्भवासीं । पडिलों गा उपवासी प्रेमेंविण ॥१॥ बहुतांचा सेवका जालोंज काकुळती । न पावें विश्रांती तयाचेनी ॥२॥ ऐसें माझें मन शिणलें नानापरी । घालीन आभारीं संताचिया ॥३॥ वियोगें संतांच्या व्याकुळ चिंतातुर । हिंडें दारोदार दीनरूपें ॥४॥ परि कोणी संतांच्या न घालिती चरणीं । तळमलीं अनुदिनीं अश्रांत सदा ॥५॥ माझें माझें म्हणोनि जया घालीं मिठी । दिसे तेचि दिठीं नाहीं होय ॥६॥ तया शोकानळें संतप्त आंदोळें । गेलें तें न मिळे कदाळाळीं ॥७॥ न देखत ठायीं देखावया धांवें । भ्रांती भुललें भावें नानामार्गीं ॥८॥ तुझा स्वरूपानंदु नाहीं वोळखिला । जाली ते विठ्ठला हानि थोर ॥९॥ लोहाचा कवळु लागला परिसातें । पढिये सर्वांतें होय जेवीं ॥१०॥ नामा म्हणे तैसी भेटी संतचरणीं । करूनि त्रिभुवनीं होईन सरता ॥११॥
230 रमासिंधुमाजी सौंदर्याची धणी । ब्रीदें चक्रपाणि मिरविती ॥१॥ मेघदेहाकृति घनःश्याम मूर्ति । नटतसे भक्तीं भक्तजना ॥२॥ भाक देऊनियां गौळियाचे घरीं । गाई निरंतरीं चारितसे ॥३॥ इंद्र वेडावला मुनि थोर थोर । न कळेचि पार नामा म्हणे ॥४॥
231 रात्रंदिवस खंती वाटे माझे जीवीं । अनुदिनीं आठवीं चरण तुझे ॥१॥ ने रे पांडुरंगा आपुलिया गांवा । तूं माझा विसावा जिवलग ॥२॥ मी येक येकट रंकाहूनि रंक । त्रिभुवननायक कीर्ति तुझी ॥३॥ मी तुझें पोसणें दास पैं दुर्बळ । तूं दिनदयाळ स्वामी माझा ॥४॥ तुझें मी अनाथ चरणीं ठेवीं माथा । सांभाळीं सर्वथा ब्रीद तुझें ॥५॥ नामा म्हणे विठो जालों कासावीस । पुरवीं माझी आस मायबापा ॥६॥
232 लटिका तरी गाईन तुझेंचि नाम । लटिकें प्रेम आणीन तुझें ॥१॥ सहजचि लटिकें असे माझें ठायीं । तुझिया पालट नाहीं साचपण ॥२॥ लटिकें तरी हरी करी तुझें ध्यान । लटिकें माझें मन तुजचि चिंती ॥३॥ लटिकें तरी बैसे संतांचें संगतीं । दृढ धरीन चित्तीं नाम तुझें ॥४॥ लटिका तरी तुझा म्हणविन दास । धरीन विश्वास नामीं तुझें ॥५॥ लटिकें माझें मन सुफळ करी देवा । नामा म्हणे केशवा विनती माझी ॥६॥
233 लटिका मी गाईन लटिका मी नाचेन । संतासि देखोन लटिका लवें ॥१॥ लटिका माझा भाव लटिकी माझी भक्ति । तूं तंव श्रीपती कृपासिंधु ॥२॥ लटिकी माझी क्रिया लटिकें माझें कर्मा । परि सत्य तुझें नाम गातु असे ॥३॥ लटिकें माझें ध्यान लटिकें माझें ध्यान । तूं तंव सहजगुण सत्यरूप ॥४॥ लटिकी माझी पूजा लटिकें माझें स्मरण । लटिकें माझें भजन भावहीन ॥५॥ लटिकें प्रेमवत्स धेनु हें स्वीकारी । तैसें मज करीं म्हणे नामा ॥६॥
234 लपलासी तरी नाम कैसें नेसी । आम्ही अहर्निशीं नाम गाऊं ॥१॥ आम्हांपासोनियां जातां नये तुज । तें हें वर्म बीज नाम घोकूं ॥२॥ आम्हांसी तों तुझें नामचि पाहिजे । मग भेटी सहजें देणें लागे ॥३॥ भोळीं भक्तें आम्ही चुकलों होतों वर्म । सांपडलें नाम नामयासी ॥४॥
235 लाज सांडोनियां जालों शरणागत । ऐसियाचा अंत पाहसी झणीं ॥१॥ गुण दोष माझे मनीं गा न धर । पतितपावन जरी म्हणविसी ॥२॥ पडावें परदेसीं हे लाज कोणासी । जरी तूं न पावसी पांडुरंगा ॥३॥ नामा म्हणे केशवा चतुरां शिरोमणी । विचारीं अंतःकरणीं मायबापा ॥२॥ नामा म्हणे केशवा चतुरां शिरोमणी । विचारीं अंतःकरणी मायबापा ॥४॥
236 लोभियाचे घरीं लटिकेचि उपवास । न मरे ह्रषिकेश म्हणती जगीं ॥१॥ तूं तंव भावाचा अंकुर जी देवा । लटिका मी पहावव दास तुझा ॥२॥ लटिकी पक्षियातें बोभाये कुंटणी । ते त्यां माझी म्हणोनि अंगिकारिली ॥३॥ लटिका अजामेळ पुत्राचेनि मोहें । सोडविला पाहे कैसा तुवां ॥४॥ त्या अवघ्याहुनि मी लटिका सहस्त्र गुणें । तारूनि कीर्ति करणें म्हणे नामा ॥५॥
237 वत्साकारणें मोहाळु गाये । अनुसरलेया पान्हा ये ॥१॥ तैसें तुझें वासरूं बांधलों मी असें । मज लावे कांसे आपुलिया ॥२॥ मज बांधलें त्वां संसारखुंटीं । माझी माउली दूर वैकुंठीं ॥३॥ थोरूं करी मना लाहो । तंव आणिकें नेती पान्हावो ॥४॥ धीरू नव्हे याचि परि । नामा विनवितसे मुरारी ॥५॥
238 वाढवेळ कां लाविला । कोण्या भक्तें रे गोंविला ॥१॥ झडकरी यावें बा विठ्ठला । आळवितां कंठ सोकला ॥२॥ वाट पाहें दाही दिशा । जिवीं धरोनि भरंवसा ॥३॥ न कळे का धरिले उदास । मज तो वाटती निरास ॥४॥ केव्हां येईल माझा हरी । आळंगील चहुंकरीं ॥५॥ नामा गहिंवरें दाटला । देह धरणिये लोटला ॥६॥
239 वानारांच्या संगें स्वयें क्षेम देसी । मज ह्रषिकेशी न बोलावें ॥१॥ रिसांपाशीं सदा स्वाभावें तुम्ही खेळा । माझिया कपाळा नातुडसी ॥२॥ पक्षि जटायूचें लेंकरूऊं तूं होसी । माझ्या कां मनासि नातुडसी ॥३॥ लावोनि चरण तारियेली शिळा । कोळियाचा केला अंगिकार ॥४॥ नामा म्हणे तुम्हां सांगावें म्यां किती । राग माना चितीं काय वाणुं ॥५॥
240 वारंवार काय विनवावें आतां । समजावें चित्ता आपुलिया ॥१॥ तूं काय म्हणसी कंटाळेल हाची । जाईल उगाचि उठोनियां ॥२॥ मजलागीं देव जासी चुकवोनी । आणिन धरूनि तुजलागीं ॥३॥ दृढ भक्तिभाव प्रेमाचा ह दोरा । बांधीन सत्वर तुझे पायीं ॥४॥ नामा म्हणे विठो बोल काय आतां । भेटावया सर्वथा यावें बरें ॥५॥
241 वाल्मिकादि भीष्म द्रोण कृपाचार्य । द्रुपदतनया दिली भेटी ॥१॥ उद्धव नारदा अंबरिष शुक । बळी धरुवादिक आले भेटी ॥२॥ देवी देवऋषी गोपाळांसहिता । भाष्यकारें नीत शुद्ध केली ॥३॥ नामा म्हणे आतां पाहूं नको देश । पतितास यश तुझे नामीं ॥४॥
242 वासनेचा फांसा पडिला माझें कंठीं । हिंडलों जगजेठी नाना योनी ॥१॥ सोडवीं गा देवा दीनदयानिधी । मी एक अपराधी दास तुझा ॥२॥ शरण आलियाचे न पाहसी अवगुण । कृपेचें लक्षण तुज साजे ॥३॥ त्रिभुवनीं समर्थ उदार मनाचा । कृपाळू दीनांचा ब्रीद तुझें ॥४॥ गजेंद्र गणिकेची राखिलीं तुंवां लाज । उद्धरिला द्विज अजामेळ ॥५॥ नामा म्हणे देवा अव्हेरितां मज । जगीं थोर लाज येईल तूंतें ॥६॥
243 वासरूं भोवे खुंटियाभोवतें । आपआपणियातें गोवियेलें ॥१॥ तैसी परी मज जाली गा देवा । गुंफलोंसे भावा लटिकिया ॥२॥ नामा म्हणे केशवा तोडी कां बंधनें । मी एक पोसणें भक्त तुझें ॥३॥
244 विठ्ठल आमुचें सुखाचेम जीवन । विठ्ठल स्मरण प्रेमपान्हा ॥१॥ विठ्ठलचि ध्यावों विठठलचि गावों । विठ्ठलचि पाहों सर्वांभूतीं ॥२॥ विठ्ठलापरतें न दिसे सर्वथा । कल्प येतां जातां गर्भवास ॥३॥ नामा म्हणे चित्तीं आहे सुखरूप । संकल्प विकल्प मावळती ॥४॥
245 विठ्ठल आवडी प्रेमभावो । विठ्ठल नामाचा रे टाहो । तुटेल हा संदेहो । भवमूळव्याधीचा ॥१॥ म्हणा नरहरि उच्चार । कृष्ण हरी श्रीधर । हें नाम आम्हां सारा । संसार तरावया ॥२॥ एकतत्त्व त्रिभुवनीं । हेंचि आम्हां हरिपर्वणी । गाइली जे पुराणीं । वेदशास्त्रांसहित ॥३॥ नेघों नामेंविण कांहीं । विठ्ठल कृष्ण लवलाही । नामा म्हणे तरलों पाही । विठ्ठल विठ्ठल म्हणतांचि ॥४॥
246 विठ्ठल माउली कृपेची कोंवळी । आठवितां घाली प्रेमपान्हा ॥१॥ मज कां मोकलिलें कवणा निरविलें । कठिण कैसें जालें ह्रदय तुझें ॥२॥ तुजविण जिवलग दुजें कोण होईल । ते माझे साहिल जड भारी ॥३॥ तूं माझी माउली मी वो तुझा वच्छ । परतों परतों वास पाहे तुझी ॥४॥ माया मोहें कैसी न विसंबे सर्वथा । अंतरींची व्यथा कोण जाणे ॥५॥ नामा म्हणे विठ्ठ्ले कां गे रुसलिसी । केव्हां सांभाळिसी अनाथनाथे ॥६॥
247 विठ्ठल विद्गदे पुंडलिकवरदे । अनंत अभेदे नामें तुझीं ॥१॥ पाव गे विठ्ठले मजलागीं झडकरी । बुडतों भवसागरीं काढीं मज ॥२॥ आकांत अवसरीं स्मरलें साच । दीनानाथें ब्रीदें सत्य केलीं ॥३॥ स्मरली संकटी द्रौपदी वनवासी । धांवोनि आलासि लवडसवडीं ॥४॥ प्रल्हादें तुजलागीं स्मरिलें निर्वाणीं । संकटापासोनि राखियेलें ॥५॥ नामा म्हणे थोर पीडिलों गर्भवासें । अखंड पाहातसें वास तुझी ॥६॥
248 विश्वंभर नाम तुझें कमळापती । जगीं श्रुति स्मृति वाखाणिती ॥१॥ गौळियां घरींचें दहीं लोणी चोरूनी । खातां चक्रपाणि लाजसी ना ॥२॥ आतां दीनानाथा तुझें ब्रीद साचें । तरी भूषण आमुचें जतन करीं ॥३॥ येर ठेवाठेवी कायसी आतां । तुम्हां विनवितो नामा केशिराजा ॥४॥
249 विष पाजावया पूतना ते आली । ते तुवां तारिली काय म्हणुनि ॥१॥ पुसा या म्हणोनि वेश्या बोभाईलि । ती तुवां तारिली काय म्हणूनि ॥२॥ पिंगळेची आख्या पुराणीं ऐकिली । ते तुवां तारिली काय म्हणुनि ॥३॥ गौतमाचें शापें अहल्या शिळा जाली । ते तुवाम तारिली काय म्हणुनि ॥४॥ नामा म्हणे केशवा अकळ तुझी करणी । विसंबसी झणीं तूंचि मज ॥५॥
250 विषय तडातोडी करि माझे मन । राहिलें म्हणोन तुझे पाइं ॥१॥ नको नको देवा वासनेचा संग । मज आला दुभंग नारायणा ॥२॥ कामक्रोधलोभ वैरि पाठी लागियेती । झणीं त्याचे हाति देसी मज ॥३॥ नामा म्हणे होसि अनाथ कोंवसा । ब्रिदें जगदिशा वर्णिताती ॥४॥
251 विषयीं आसक्त जालें माझें मन । न करी तुझें ध्यान पंढरीराया ॥१॥ नाथिले संकल्प करी नानाविध । तेणें थोर खेद पावतसे ॥२॥ आयुष्य सरे परी न सरे कल्पना । भोगावी यातना नानाविध ॥३॥ जन्म मरण कष्ट भोगितां संकटीं । होतसे हिंपुटीं येरझारीं ॥४॥ ऐसा मी अपराधी दुराचारी देवा । भेटसी केशवा कवणेपरी ॥५॥ मायामोहें सदा भ्रांत माझें चित्त । चुकलें निजहित नारायणा ॥६॥ तूं अनाथा कैवारी ब्रीदावळी हरी । सोडवी मुरारी म्हणे नामा ॥७॥
252 विसावा विठ्ठल सुखाची साउली । प्रेमपान्हा घाली भक्तांवरी ॥१॥ दाखवी चरण दाखवी चरण । दाखवी चरण नारायणा ॥२॥ विठठल आचार विठठल विचार । दावीं निरंतर पाय आतां ॥३॥ नामा म्हणे नित्य बुडालों संसारीं । धांवोनियां धरीं हातीं मज ॥४॥
253 वीतभर पोट लागलेंसे पाठी । साधुसंगें गोष्टी सांगूं न देई ॥१॥ पोट माझी माता पोट माझा पिता । पोटानें ही चिंता लाविलीसे ॥२॥ पोट माझा बंधु पोट माझी बहीण । पोटानें हें दैन्य मांडिलेंसे ॥३॥ विष्णुदास नामा पोटाकडे पाहे । अजून किती ठाये हिंडविसी ॥४॥
254 वेदपरायण मनीं तो ब्राम्हण । चित्त समाधान संतुष्ट सदा ॥१॥ येरा माझें नमन सर्वसाधारण । ग्रंथाचें राखण म्हणोनियां ॥२॥ शास्त्रपंडित तोचि मी बहुमानी । जो आपणातेम जाणोनि तन्मय जाला ॥३॥ पुराणिक ऐसा मानितो कृतार्थ । विषयीं विरक्त विधीपाळी ॥४॥ मानीं तो हरिदास ज्या नामीं विश्वास । मी त्याचा दास देहभावें ॥५॥ नामा म्हणे ऐसें कईं भेटविसी विठ्ठला । त्यालागीं फुटला प्राण माझा ॥६॥
255 व्यापकारीस मन केलें वाड । सांपडलें गोड प्रेममुख ॥१॥ जिकडे पाहें तिकडे विठ्ठल अवघा । भीमा चंद्रभागा पुंडलिक ॥२॥ सर्व निरंतरीं सबाह्य अंतरीं । हें ब्रह्यांड पंढरी जाली मज ॥३॥ महुरलें तरुवर पुष्पीं फलीं भार । तेंचि निर्विकार सनकादिक ॥४॥ आवडीचा आनंदु तोचि विष्णुनादु । अनुभव तो गोविंदु गोपवेषें ॥५॥ नामा म्हणे विठो भक्तीच्या वल्लभा । मागें पुढें उभा सांभाळित ॥६॥
256 शरणागतासी नको मोकलावा । हें तरी केशवा जाणतोसी ॥१॥ सांगणें नलगे सांगणें नलगे । सांगणें नलगे मायबाप ॥२॥ सांगतां समर्थ सवेंचि विसरे । त्याच्या अभ्यंतरीं नव्हे बोल ॥३॥ नामा म्हणे तैसा न होसी शहाणा । अठराहि पुराणें वेडावलीं ॥४॥
257 शरीराचा भाव तुज नाहीं देवा । तेथें मी केशवा काय बोलूं ॥१॥ अंगदाचे अंगीं बळ देसी फार । बहु उपकार कळों आलें ॥२॥ तुम्हां नित्य न्याय नोव्हे साचपण । बळि तूतें दान देउनि ठके ॥३॥ नामा म्हणे सदा काय म्यां गार्हाणें । किती नारायणें देऊं आतां ॥४॥
258 श्रीहरि श्रीहरि ऐसें वाचे म्हणेन । वाचा धरिसी तरी श्रवणें ऐकेन ॥१॥ श्रावणीं दाटसी तरी मी नयनीं पाहिन । ध्यानीं मी ध्याईन जेथें तेथें ॥२॥ जेथें जाये तेथें लागलासी आम्हां । न संडी म्हणे नामा वर्म तुझें ॥३॥
259 संसारषडचक्रीं पडिलों महाडोहीं । सोडवणें येई पांडुरंगा ॥१॥ दवडादवडी धांव दवडादवडी धांव । नको भक्तिभाव पाहों माझा ॥२॥ माझी चित्तवृत्ती अज्ञान हे गाई । व्याघ्रें धरिली आहे अहंकारें ॥३॥ पंचाननीं मज घेतलें वेढोनि । नेताति काढोनि प्राण माझा ॥४॥ गजेंद्राकारणें घातली त्वां उडी । तैसा लवडसवडी पावें मज ॥५॥ नामा म्हणे मज तुझाचि आधारा । पोसणा डिंगर जन्मोजन्मीं ॥६॥
260 संसारसंकटें रिघालों पाठिसी । आतां झणीं देसी त्यांचे हातीं ॥१॥ ब्रीदें बडिवार ऐकोनियां फार । रिघों आम्ही द्वार विठोबाचें ॥२॥ आणिकहि वार्ता सांगों काय आतां । पंढरिच्या नाथा परिसावें ॥३॥ अमृत पाजणें प्रीतीनें भक्तासी । सत्य ह्रषिकेशी नामा म्हणे ॥४॥
261 संसारसागरीं पडलों महापुरीं । सोडवण करी देवराया ॥१॥ नामाची सांगडी देऊनियां मातें । वैकुंठावरूतें नेऊनि घाली ॥२॥ काम क्रोध मगर करिती माझा ग्रास । झणीं तूं उदास होसी देवा ॥३॥ नामा म्हणे देवा झणीं मोकलिसी मातें । नाम तुझें सरतें धरिलें एक ॥४॥
262 संसाराचे सोये चुकले बापुडे । केशव मागें पुढें सांभाळित ॥१॥ आळीकर नामें खेळे महाद्वारीं । आंतून बाहेरी नवजे कांहीं ॥२॥ संतांसी देखोनी मिठी घाली चरणीं । कुरवंडी करूनी देह टाकी ॥३॥ ऐसें निज बोधें राहिले निवांत । नामा एकुलते केशवचरणीं ॥४॥
263 संसारी गांजलों म्हणोनि शरण आलों । पाठीसि रिघालों देवराया ॥१॥ कळिकाळा वास पाहूं तूं न देसी । भरंवसा मानसीं आहे मज ॥२॥ नामा म्हणे देवा स्वामिया तूं एक । आवडता सेवक करीं मज ॥३॥
264 संसारींच्या आह्या आहाळलों भारी । निवावी गा श्रीहरि अमृतदृष्टी ॥१॥ मी अनाथ अपराधी दुर्बळ दुराचारी । कृपाळू बा हरी तारीं मज ॥२॥ नामा म्हणे विठो कृपेचा कोंवळा । जाणसी कळवळा अनाथनाथा ॥३॥
265 सकळ वैभव निजकर्म भोग । ते तुज उद्वेग दावी काई ॥१॥ मीतूंपण असे तेथें मग कैचें । निर्माण ठायिंचें तोडीं वेल ॥२॥ आपुला करूनि ठेवीं तुझें पायीं । थोरपण कांहीं नको मज ॥३॥ नामा म्हणे तुझें सोलीन ढोंपर । कासया विचार देखों आतां ॥४॥
266 समर्थपणें रंका का गांजितसां स्वामी । हें काये स्वधर्मीं मिळतसे ॥१॥ आपुली करणी न विचारा मनीं । दुसरियास झणीं बोल ठेवा ॥२॥ निर्गुन निराकार होतेंती शून्यपणें । आम्हांसी असणें तेचि ठायां ॥३॥ सुखें एकरूप होतों तुझें पोटीं । कासया हे सूष्टी वाढविली ॥४॥ विकाराचें मूळ दिधलें हें शरीर । तेणें कष्टी थोर जालों आम्ही ॥५॥ पाण पुण्य दोन्हीं लाविली सांगातें । म्हणऊनि सुखातें अंतरलों ॥६॥ यमलोकीं वास रोरव यातणा । तेणें नारायणा धाक थोर ॥७॥ खातों जेवतों तें न लगेचि अंगीं । जालोंसेम उद्वेगीं रात्रंदिवस ॥८॥ ऐसे देह आम्हां कासया दिधले । काय मागितले आम्हीं तुम्हां ॥९॥ सृष्टीपूर्वीं पाप नव्हतें हरी । कासया श्रीहरी कष्टी केलें ॥१०॥ वेदशास्त्रवचन आम्हांसी लाविलें । तें तुम्हीं टाकिलें एकीकडे ॥११॥ वेदशास्त्रवचन चुकल्य अवचिता । गोसावी जी होतां दंडावया ॥१२॥ मागां चुकलेती तें ठेवा एकिकडे । आतां तरी पुढीं सांभाळावें ॥१३॥ एकरूफ तुम्ही होतेती निर्गुणीं । तेथें आमुचे कोण्ही बोलों आलों ॥१४॥ निर्गुउन सांडुनि व्हावें जी सगुणज । ऐसें तुम्हां कोण बोलियेलें ॥१५॥ आपुलिये इच्छे ब्रह्मांडें रचिलीं । कय सांगितलीं जी आम्हीं तुम्हां ॥१६॥ लक्ष्मीचे विलास धरिले नाना वेष । हा काय उपदेश आम्ही केली ॥१७॥ विश्व हें मिर्मुनि जालेती गोसावी । हें काय सांगावी आम्ही केली ॥१८॥ जे तुम्हां पाहिजे तें तुम्ही निर्मिलें । आपणासवें केलें कष्टी आम्हां ॥१९॥ क्ल्पजन्मांतरी युगयुगांतरी । जवळी श्रीहरी होतों आम्हीं ॥२०॥ तुम्ही तेथें आम्ही आम्ही तेथें तुम्ही । विचारावें स्वामी पांडुरंगा ॥२१॥ तुम्हां आम्हां कांहीं वेगळिक नाहीं । बोलोनियां काई दावूं आतां ॥२२॥ आम्हांसि तुम्ही काय सोसिलें अधिक । ठकितसां लोक तैसें नव्हें ॥२३॥ तुम्हांसी अवतार कोरडियें काष्टीं । तुमच्या नामें कष्टीं दैत्यें केलें ॥२४॥ तुम्हांसी मातेनें धाडियेलें वना । आमची विटंवना बहुत जाहली ॥२५॥ वल्कलें वेष्टोनी जालेती तापसी । वेष आम्हां देसी मर्कटाचे ॥२६॥ जवळीच असुनी हरविली कांता । आम्ही शुद्धिकरतां कष्टी जालों ॥२७॥ तियेचे वियोगें शोक करा वनीं । वानरें होऊनि हिंडों आम्हीं ॥२८॥ तुम्ही स्वामीपणें बैसा एके ठायीं । आम्हीं शिळा डोई वाहिलेल्या ॥२९॥ लंकेपुढें आम्हीं वेचियेलें प्रान । तुम्ही ते दुरून बाण टाका ॥३०॥ अयोध्येचे राज्यीं तुम्हां सिंहासन । आमचे कपाळीं हीन चुकेचि ना ॥३१॥ वस्त्रें अलंकार तुम्हां हस्ती घोडे । आम्हीं ते उघडे पायीं चालों ॥३२॥ चाड सरलिया नाहीं आठवण । कांहो लक्षुमण दवडिला ॥३३॥ लोक म्हणों तरी पाठीं सहोदर । जालेति निष्ठूर देवराया ॥३४॥ तुम्हां एकलेनि न करावें गमन । सर्व अवघेजण आलों आम्हीं ॥३५॥ कंसाभेणें तुम्ही राखियेल्या गाई । तेथें आम्ही काई नवहतों देवा ॥३६॥ भोगा स्वामीपन राखितां गोधनें । ठकोनियां खाणें आमच्या रोटया ॥३७॥ सर्पापोटीं आम्हीं घावरलोसें विखें । तुम्ही आपुले सुखें वेगळेची ॥३८॥ खेळतां यमुनेडोहीं टाकियेली उडी । आम्ही थडी थडी रुदन करू ॥३९॥ गोवर्धन गिरी आमुचिये शिरीं । तुम्ही नानापरि वेणु वाहा ॥४०॥ आम्हां चोरुनी नेलें वर्षभरी । तुम्हीं आपुले घरीं सुखी असा ॥४१॥ असो आतां चाड नाहीं येणेंवीण । आमुचें निर्वाण पाहूं नका ॥४२॥ अमुचे दिवस काय वायां गेले । स्वामीया उगले राहा तुम्ही ॥४३॥ कल्पाचे शेवटीं तुम्हां आम्हां भेटी । तेथें पैं ह्या गोष्टी कळों येती ॥४४॥ नामा म्हणे अम्ही पाईक फुकाचे । धारक नामाचे दास तुझे ॥४५॥
267 समर्थाचें बाळ पांघरे वाकळ । हांसती सकळ लाज कोणा ॥१॥ देव आप्त दैन्य उरे कैंचे बापा । आम्हांसि तूं कां पां विसरलासी ॥२॥ ऐसा तूं अविनाश त्रिभुवनिंचा राजा । नामा म्हणे माझा तूंचि स्वामी ॥३॥
268 सर्वभावें तूतें जे ध्याती दातारा । त्यांचिया संसारा तूंचि होसी ॥१॥ ज्याचे चित्तीं नाहीं आणिक कांहीं काम । त्याचा योगक्षेम तूंचि होसी ॥२॥ ऐहिक परत्र जें कांहीं देखिजे । तें तुवां होईजे मायबापा ॥३॥ नामा म्हणे माझी भक्ति हे माउली । केशवा वाहिली क्षणमात्रें ॥४॥
269 सांडोनि अभिमान जालों शरणागत । ऐसियाचा अंत पहासी काई ॥१॥ माझे गुणदोष मनीं गा न धरीं । पतित पावत जरी म्हण्नविसी ॥२॥ पडविलिया पापराशी झणीं देसी देवा । हे लाज केशवा कोणास जी ॥३॥ नामा म्हणे देवा चतुरा शिरोमणी । निकुरा जासी झणीं मायबापा ॥४॥
270 सांडोनि संसार जालों मी अंकित । ऐशियाचा अंत पाहूं नको ॥१॥ पातकी मी सत्य पातकी मी सत्य । पातकी मी सत्य पांडुरंगा ॥२॥ माझे गुणदोष न धरिसी चित्तीं । थोरपण ख्याति दावी आम्हां ॥३॥ ऐसा अपराध आणूं नको मना । पंढरीच्या राणा म्हणे नामा ॥४॥
271 साचपणें ब्रीद सोडनिन तुझ्या । आतां केशिराजा पण हाचि ॥१॥ लबाड तूं देवा लबाड तूं देवा । लबाड तूं देवा ठावा आम्हां ॥२॥ काय सूर्यपणें सांगशिल गोष्टी । थोरपणें मोठीं पुरे आताम ॥३॥ नामा म्हणे काय खवळिसि आम्हां । लाज नाहीं तुम्हां कवणेविसीं ॥४॥
272 हस्तीच्या चरणावरी बैसे माशी । नमन तयासी करावया ॥१॥ तैसें कायसें मी केवढें वापुडें । लागे कोणीकडे देवराया ॥२॥ नामा म्हणे तैसें मी एक दुबळें । चरणावेगळें करूं नको ॥३॥
273 हातीं विणा मुखीं हरी । गायें राउळाभीतरींज ॥१॥ अन्न उदक सोडिलें । ध्यान देवाचें लागलें ॥२॥ स्त्री पुत्र बाप माय । यांचा आठव न होय ॥३॥ देह्भाव विसरला । छंद हरीच लागला ॥४॥ नामा म्हणे हेंचि देई । तुझे पाय माझे डोयीं ॥५॥
274 हिरे जळामधीं भिजतील कधीं । तैसें कृपानिधी केलें आम्हां ॥१॥ आमुचा विकल्प आमुचा विकल्प । आमुचा विकल्प आम्हां नाडी ॥२॥ कामधेनु संगें गाढव बांधिलें । तयाचें तें मोलें तुके केवि ॥३॥ काय म्यां करावें पाठी लागे भोग । नामा म्हणे योग तुझ्या हातीं ॥४॥